Thursday, 10 September 2015

संस्मरण - मेरी सहेली

बहुत साल पुरानी बात है तब मैं कोई 9 -10 साल की रही होंगी ।मेरी एक सहेली थी जो हमारे घर के पीछे ही रहती थी । शाला से आकर अपना काम निपटा कर मैंअक्सर उसके पास चली जाती थी ।उसका बात करने का जो तरीका था वो मुझे बहुत अच्छा लगता था वो बोलती थी और मैं बस सुनती रहती । किसी भी छोटी सी बात का वर्णन वो ऐसे करती जैसे कितना बड़ा काम किया हो ।
     जब हम छोटे होते है तो हमे घर में कोई भी छोटे -मोटे काम करने को दिए जाते है ताकि हम आगे जाकर जिम्मेदार बन सकें ।जैसे मुझे चाय बनाने का काम मिला हुआ था वैसे ही सीता यानि मेरी सहेली को भगवान् की दिया बत्ती का काम उसकी माँ ने दे रखा था ।
      एक दिन जब शाम को मैं उसके पास पहुँची तो वो बोली आज तो बड़ी थक गई हूँ ।मैंनेपूछा क्या हुआ ? तो वो बोली अरे क्या बताऊँ  स्कूल से आई तो देखा भगवान का दीपक अभी तक किसी ने साफ़ नहीं किया था ।जल्दी -जल्दी साफ़ किया ,रूई निकाली ,बत्ती बनाई अब देखा तो घी जमा हुआ था ,रसोई में जाकर देखा तो चूल्हा भी बुझ चुका था (उन दिनों चूल्हे या अंगीठी पर ही खाना बनाया जाता था ,गैस स्टोव का प्रचलन कम ही था ) अब क्या करती धूप भी नही थी कि उसमे ही घी पिघलाती । पड़ोस में गई वहाँ घी पिघलाया ,दिए में बत्ती डाली ,माचिस में से तीली निकाली ,जलाई  तब कही जाकर दिया बत्ती हुई बाप रे कितना थक गई ।
     मैं भी उसकी  बातों का मज़ा ले रही थी।
      बड़ी प्यारी थी वो ।

   

Monday, 7 September 2015

संज्ञा

   जी हाँ ,संज्ञा हूँ मैं
     व्यक्ति या वस्तु ?
  कभी -कभी ये बात सोच में डाल देती है
   रूप है,रंग है ,आकार भी है
   दिल भी,दिमाग भी
    पर लगता है जैसे वस्तु ही हूँ मैं
    जिसे,जहाँ चाहे रख दो
   मन हो उठा लो
    या शो केस में सजा लो
     एक धड़कता दिल तो है सीने में
  धड़कन किसी को सुनाई न देती
इच्छाएँ ,आशाएँ ,उम्मीदें भी हैं
जो किसी को दिखाई न देती
  अब तो आलम ये है कि
खुद ही भ्रमित हूँ
   क्या हूँ मैं
   निर्जीव या सजीव ?
बस संज्ञा हूँ मैं ।

Wednesday, 2 September 2015

दूसरा पहलू

    देखा पलट के पीछे की ओर
      था नज़ारा वहाँ कुछ और
       होठों पर थी मुस्कान जैसे ओढ़ी हुई
       उस खिलखिलाहट के पीछे
         छुपा दर्द भी देखा था मैंने
          हक़ीकत यही थी
        न हँसना न रोना
         न प्यार ,न  उसका एहसास
          कहने को तो सभी थे अपने
          फिर भी पाया अकेला स्वयं को
          सब कुछ था फिर भी
        दिल का एक कोना था उदास
         न थी जिसमे कोई जीने की आस
          ये दिल का कोना न देख ले कोई
         इसलिए सदा मुस्कुराना है
        खिलखिलाना है
           इसे सजाना है ।