कब से खड़ी
झरोखे से
बाट निहारूँ
कहाँ हो तुम
और ये चाँद निर्मोही
देखो मुझे देख
कैसे मुस्कुरा रहा है
जैसे चिढ़ा रहा है
कह रहा है
मैं तो रहता साथ
सदा चाँदनी के
मैं हूँ तो वो है
बने एक दूजे के लिए
मैं भी क्या कहूँ
कहाँ हो तुम ?
आँखे पथरा गई
राह तकते -तकते
पथराई सी
ना जाने कब
बन्द हुई
और फिर सपने में
तुम आये , बाहें फैलाये
और मैं खिंची सी चली गई
चलती ही गई
पा ही लिया तुम्हे
सपना ही सही
ख़ुशी दे गया
जब आँख खुली
खिड़की से चाँद
अभी भी मुस्कुरा रहा था .......
बहुत सुन्दर रचना ।
ReplyDeleteधन्यवाद प्रदीप जी । स्वागत है आपका मेरे ब्लॉग पर ।
ReplyDeleteआभार ।
धन्यवाद प्रदीप जी । स्वागत है आपका मेरे ब्लॉग पर ।
ReplyDeleteआभार ।
अच्छी कविता। शुभकामनाएं।
ReplyDeleteअच्छी कविता। शुभकामनाएं।
ReplyDeleteधन्यवाद अरुणजी । स्वागत है आपका मेरे ब्लॉग पर ।
ReplyDeleteवाह !बेहतरीन अभिव्यक्ति आदरणीय दीदी प्रीत का पावन एहसास करती ..राह तकते -तकते
ReplyDeleteपथराई सी
ना जाने कब
बन्द हुई
और फिर सपने में
तुम आये , बाहें फैलाये
और मैं खिंची सी चली गई
चलती ही गई
पा ही लिया तुम्हे
सपना ही सही
ख़ुशी दे गया..हृदय स्पर्शी सृजन दी .
धन्यवाद प्रिय अनीता ।
Deleteबहुत -बहुत धन्यवाद यशोदा जी ।
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