मैं , मुस्कान ,हँसी और ख़ुशी
बचपन की थी खास सहेलियाँ
हरदम रहती साथ -साथ
खेला करती , कूदा करती
फिरती बनकर मस्त मलंग
मुस्कान सदा होंठों से चिपकी रहती
हँसी भी उसके साथ ही रहती
बीत रहे थे बचपन के वो दिन
ख़ुशी के संग
फिर एक दिन
किसी ने दरवाजे पर
दी दस्तक
देखा तो खड़ी थी चिंता
मैंने फटाक से
बन्द किया दरवाजा
नहीं -नहीं .....
तुम नही हो मेरी सखी
पर वो तो थी बड़ी
चिपकू सी
पिछले दरवाजे से
हौले से आ धमकी
एक न जाने वाले
अनचाहे मेहमान सी
भगा दिया मेरी
प्यारी सहेलियों को
दे रही है
दिन ब दिन
माथे पर लकीरें
केशों की अकाल सफेदी
लगता है अब तो
गुमशुदा की तलाश का
इश्तिहार देना होगा
अगर किसी को
मिले कहीं
हँसी , ख़ुशी , मुस्कान
उन्हें मेरा पता बता देना ।
सार्थक व प्रशंसनीय रचना...
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है।
धन्यवाद शांतिजी ।
Deleteधन्यवाद शांतिजी ।
Deletesunder vichar.............!!!!
ReplyDeleteआभार ।
Deleteआभार ।
Deleteबेहतरीन अभिव्यक्ति.....बहुत बहुत बधाई.....
ReplyDeleteधन्यवाद चतुर्वेदीजी ।
ReplyDeleteAdbhut rachna sundar abhivyakti
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