कुछ बगीचे में धूप सेक रही थी ,कुछ सीढियों पर बैठी थी ।
सभी की आंखें रीती -सी थी । कुछ के हाथ में फोन था , किसी का भी फोन बजता तो वे झट अपनें फोन की ओर आशा भरी नजरों से देखने लगती ...इंतजार करती हुई किसी अपने के फोन का .....।
उनकी आंखों में जो मैंने पढ़ा अभिव्यक्त करनें की कोशिश की है .........
अचानक फोन बजा
उनकी नजर झट
उधर दौडी ..
कहाँ बजा ....
धीरे -से फुसफुसाई.....
मेरा तो फोन कोमा में है
नहीं बजता ..
न किसी का आता है
अब तो मुझे भी डर लगता है
अगर फोन कोमा से बाहर भी निकला
और बजा ....उठाऊंगी नही
अब और काम भी क्या होगा
मेरा सब कुछ छीन कर .
यहां पहुँचा दिया
अब कुछ बचा ही नही है ।
शुभा मेहता
7th January ,2023
मार्मिक रचना, वैसे हर हाल में खुश रहना जिसने सीख लिया ऐसी भी कोई महिला मिल जाती होगी, और कुछ तो स्वयं की इच्छा से भी आती हैं
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद अनीता जी । जी , मैं पहली बार ही गई थी ।
Deleteमार्मिक
ReplyDeleteधन्यवाद ओंकार जी ।
Deleteबहुत मार्मिक प्रसंग शुभा जी ! हृदयस्पर्शी सृजन।
ReplyDeleteअब तो मुझे भी डर लगता है
ReplyDeleteअगर फोन कोमा से बाहर भी निकला
और बजा ....उठाऊंगी नही
अब और काम भी क्या होगा
मेरा सब कुछ छीन कर .
यहां पहुँचा दिया
अब कुछ बचा ही नही है ।
ओह!!!
बहुत मार्मिक सृजन
बहुत हृदयस्पर्शी।
मार्मिक भाव लिए ... दिल को छूता हुआ ...
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