खूबसूरत रंगों से भरा है
इस दुनियाँ को
नीला आकाश ,नीला सागर
हरी-हरी घास
रंग-बिरंगी सब्जियाँ
फूल और फल
खूबसूरत वृक्ष
तरह-तरह की वनस्पतियाँ
क्या नहीं दिया उसने
ये नदियाँ ,ये पहाड़
और बदले में हमनें क्या किया
सभी का रंग बिगाड़ कर रख दिया
आकाश प्रदूषित, नदियाँ ,सागर प्रदूषित
और तो और फल ,सब्जियों को भी
रासायनिक बना कर छोड़ दिया
इतना स्वार्थी कैसे हो गया
रे मानव तू .....।
Wah shubhaee...Simple but effective
ReplyDeleteDhanyvad bhai
Deleteखूबसूरत पंक्तियों में सुंदर भाव।
ReplyDeleteधन्यवाद नितिश जी ।
Deleteवेदों में कहा गया कि इन्सान से अबोले प्राणी कहीं बेहतर हैं।वे प्रकृति से उतना ही लेते हैं जितनी उन्हें जरुरत होती है पर इन्सान की फितरत और रूचि भोगने के साथ- साथ व्यर्थ के संग्रह में ही रही। एक जरुरी विषय की ओर ध्यान दिलाती रचना के लिए बधाई और शुभकामनाएं प्रिय शुभा जी 🙏
Deleteबहुत-बहुत धन्यवाद प्रिय रेणु जी
Deleteबहुत खूबसूरत रचना
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद
Deleteक्यों का तो उत्तर ढूंढना कठिन ही है। आपने जो लिखा है, सच है। मनुष्य से अधिक स्वार्थी प्राणी सृष्टि में कोई अन्य नहीं। तथापि आदिवासी प्रकृति से अपनी आवश्यकता के अनुरूप ही लेते हैं तथा उसे हानि नहीं पहुँचाते। यह कृत्य स्वयं को सभ्य एवं विकसित मानने वाले मानव समुदाय ही करते हैं।
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद जितेंद्र जी
Deleteमानव जो न करे वो कम है ... विनाश में खोजो तो मानव हजी है ...
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद दिगंबर जी
Deleteबहुत विचारणीय लेख, शुभा दी।
ReplyDeleteसराहनीय सृजन।
ReplyDeleteअच्छा लगा। आगे भी आप के लिखे को पढ़ते रहने की इच्छा है।
ReplyDeleteमनुष्य की क्षमता बड़ी विराट है,परंतु वह सार्थक कर्म करने के बजाय अपनी असली ऊर्जा निरर्थक कर्मों में लगाता है जिसका परिणाम विनाश का कारण बनता है।
ReplyDeleteसराहनीय सृजन।
ख़ुदगर्ज़ इंसान!!!
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