सुना था
कान होते हैं
दीवारों के भी
पर अब जाना
कि कान ही नहीं
दीवारें तो
होती हैं सशरीर
जब से सीखा है
मैनें जीना
बंद दरवाजों
के भीतर
तब महसूस किया
कि ये तो
बतियाती हैं
घंटों मुझसे
कभी हँसाती
कभी रूलाती
और कभी तो
अपनी बाहें
फैलाकर समेट
लेती हैं
और ले जाती हैं
मुझे इस अकेलेपन से
कहीं दू.....र
जानती हूँ कि
अब ये ही है
मेरी संगी -साथी ।
शुभा मेहता
13th Aug ,2016
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 15 अगस्त 2016 को लिंक की गई है.... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत -बहुत धन्यवाद यशोदा जी ।
ReplyDeleteबहुत -बहुत धन्यवाद यशोदा जी ।
ReplyDeleteBahut acchi abhivyakti hai ekakipan ki shaily har baar ki taraf chust durust saral seedhi bhasha mein teri baatein dil k andar ghre paithti hain yun hi likhti rah halchal with 5links mein lgatar aane ke liye bdhai ki patra h accha lga hai jab koi teri tareef krta hai love you sister live long
ReplyDeleteBahut acchi abhivyakti hai ekakipan ki shaily har baar ki taraf chust durust saral seedhi bhasha mein teri baatein dil k andar ghre paithti hain yun hi likhti rah halchal with 5links mein lgatar aane ke liye bdhai ki patra h accha lga hai jab koi teri tareef krta hai love you sister live long
ReplyDeleteवाह...
ReplyDeleteदिन भर यही तो करती आ रहीं हैं हम
आभार वैभवी जी ।
DeleteThis comment has been removed by the author.
Deleteवाह !
ReplyDeleteइस कविता का तो जवाब नहीं ! ..........दिल को छू लेने वाली प्रस्तुती
बहुत -बहुत धन्यवाद संजय जी ।
ReplyDeleteबहुत -बहुत धन्यवाद संजय जी ।
ReplyDeleteशुभा जी ढेर सारी शुभकामनाएँ लगातार बेहतरीन भावों के साथ आपने अपनी कविताएँ परोसी हैं ।
ReplyDeleteऔर हम सभी को अपने अच्छे विचारों से अवगत कराई हैं
एक अच्छा समाज रचने की क्षमता है आपकी कविताओं में
और आप में भी ।।
बहुत -बहुत धन्यवाद नीलेन्द्र जी ।
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