Monday, 27 May 2019

रानी (लघुकथा )


छोटी सी ,प्यारी सी गुडिया सी थी वो ,नाम था उसका रानी । माँ ,पापा ,दादा ,दादी सबकी दुलारी । हमेशा मुस्कुराती रहती र बहुत मीठा बोलती थी ।
बहुत बडा सा घर था उनका ,न जाने कितने छोटे -बडे़ कमरे थे । घर के नीचे लाइन से आठ ;दस दुकानें थी ,जो सभी किराए पर दी हुई थी ।
  रानी रोज उन दुकानों का चक्कर लगाती ,और जब दुकानदार आदर से उसे  हाथ जोड नमस्ते करते ,तब वो अपने आप को किसी राजकुमारी  से कम न समझती ।
उन सभी दुकानों में एक दुकान किराने की भी थी ,रानी को वहाँ बैठना सबसे अच्छा लगता था । वहाँ बैठकर वह लोगों को चीजें खरीदने देखती थी ।
रानी देखती ,कि कुछ लोग रोज बहुत थोडी थोडी चीजें खरीदते थे एक या दो रुपये में शक्कर ,चाय ,दाल थोडा सा तेल । वो दुकान वाले चाचाजी से पूछती ,ये लोग रोज इत्ती -इत्ती सी चीजें क्यों लेते हैं एक साथ क्यों नहीं लेते ..तब दुकान वाले चाचाजी उससे कहते ..बेटा ये रोज़ कमाकर रोज़ खाने वाले लोग है बहुत गरीब हैं ।
रानी को तब समझ नहीं आता ये गरीब क्या होता है ?
  समय गुज़रा और देखते-देखते रानी सयानी हो गई ,पढाई पूरी होते -होते उसका विवाह भी अच्छे घर  में निश्चित हो गया ,और रानी ब्याह कर ससुराल चली गई । कुछ समय तक सब कुछ ठीक चलता रहा फिर अचानक एक दिन जोरों की बाढ़ आई और बहा ले गई उसके घरोंदे को , इतने जतन से बसाया घर मिनटों में तहस -नहस । पूरे घर का सामान बाढ़ की भेंट चढ़ गया । रानी नें हिम्मत न हारी ,अपने पति और परिवार वालों के साथ फिर से लगन व मेहनत से घरौंदा बनाया । आराम से गृहस्थी चलनें लगी । इस बीच रानी दो प्यारे -प्यारे बच्चों की माँ बन गई । समय पंख लगाकर उडने लगा ।
  अचानक फिर से जोरों का तूफान आया ,रानी का जीवन फिर से हिचकोले खाने लगा । और इस बार तूफान नें सब कुछ तहस -नहस कर दिया ।
कुछ समझ नहीं आ रहा था करें तो क्या करें ।
बच्चे भी अब बडे़ हो चले थे । उनकी शिक्षा में कोई कमी नहीं आनी चाहिए ,यह सोच रानी अपने पति के साथ फिर से हिम्मत के साथ जूझ पडी ,अपने  घरौंदे को फिर से बनाने में । उसे भरोसा था ,कल जरूर अच्छा होगा ।
  अब उसे समझ आ गया था कि गरीबी क्या होती है ...,जब वो सौ रुपये में शक्कर ,दाल थोडा सा तेल लाती ,आँख से दो अश्रु बिंदु आनायास ही निकल पड़ते ।
शुभा मेहता

26th June ,2019
 

Wednesday, 22 May 2019

आओ ,,मिलकर वृक्ष लगाएं...

चलो .....,कुछ अच्छा करते हैं
सब मिलकर ,कुछ अच्छा करते हैं
ले आओ कुछ बीज
वृक्षारोपण करते हैं
चलो ..कुछ अच्छा करते हैं
वट ,पीपल ,नीम ,गुलमोहर
आम,अनार और अमरूद
कहीं बिछा दे ,दूब हरी सी
  जो लगे हरे गलीचे सी
   धरती माँ को खूब सजा कर
   दुल्हन सा बनाएं .
  चलो ,कुछ अच्छा करते हैं ।
  

   शुभा मेहता
   25th May ,2019
  

 
   

  
 
   

 

Wednesday, 8 May 2019

गुलमोहर

सडक के  उस पार
गली के छोर पर
हुआ करते थे
  दो गुलमोहर ...
  बडे़ मनोहर लगते थे मुझे
   जब लद जाया करते थे
   फूलों से .....
    एक केसरी
    और दूसरा पीला
     मेरे मन को बहुत भाते थे
      खिडकी से बस दूर से निहारा करती
       वृक्षों के नीचे खिरे हुए फूलों की
       चादर सी बिछ जाती थी जब
        मानो हो मखमली कालीन
        मन करता था जाकर
         पग फैलाकर
          कर लूँ क्षण आराम ..।
           पर अब वो नहीं हैं
          काट डाला
           कुछ इंसानों ने मिलकर
           नहीं दिखता वो
          मखमली कालीन
          क्योंकि वहाँ तो
          तिमंजिला मकान बन गया है ...।
         

     शुभा मेहता
      9th May ,2019
          
            
          
     
   

Wednesday, 1 May 2019

टिफिन

ऑफिस में मित्रों के साथ
  लंच टाइम में
  जब भी टिफिन
खोलकर बैठती
  सबकी नज़रें
   मेरे खाने की
    ओर ही होती
      रोटी,सब्जी
       दाल ,चावल
       अचार ,पापड
        दही ,मिठाई
         कितना कुछ ..
      साथी कहते , लगता है
     माँ बनाती है तुम्हारा टिफिन
       तभी इतना स्वाद
        होता है खाने में
          माँ से जब भी मैं कहती
          माँ इतना कुछ
       क्यों रखती हो
       इतना तो समय भी नहीं होता
      इतना खा भी नहीं पाती
     माँ हँस कर कहती
      सबको खिलाया कर
       कहती ,अरे ...
       क्यों करती हो इतना काम
      पेट के लिए ही न
       और मैं निरुत्तर हो जाती
       मित्र रोज नई चीज की
.       फरमाइश करते
       और माँ बडे प्यार से बनाती
        साथी कहते बडे नसीबों वाली हो
        सच ही तो है
        माँ तो बस माँ ही होती है .....!!
         
    माँ को सादर सर्मपित ...
  
     शुभा मेहता
     8thMay ,2019