Tuesday, 30 July 2024

बरतन (लघुकथा )

टोकरी में पड़े सारे बरतन जोर -जोर से चिल्ला रहे थे ..
"ये इंसान  भी ना ,क्या समझता है अपनें आप को ...जो भी गुस्सा हो ,जिससे भी गुस्सा हो बिना सोचे समझे हम पर उतार देता है "
 थाली बोली ,"देखो मेरी हालत ..खाना पसंद नहीं आया तो मुझे खानें सहित जमीन पर पटक दिया इतनी जोर......से 
मुड गई  हूँ अब टेबल पर टिक ना पाऊंगी "
 देखो ना इतना छोटा - सा बच्चा ...उसनें तो मुझे पछाड़कर अधमरा कर दिया नन्ही चम्मच बोली ।
   जब  भी बस नहीं चलता ना किसी का किसी पर ...शामत हमारी ही आती है .।

  शुभा मेहता 
30th July, 2024


 

14 comments:

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद सर

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  2. जी शुभा जी, निरीह बरतनों की अपनी व्यथा है 😊😊रोचक लघु कथा 🙏

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद प्रिय सखी

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  3. Waah, jinki zuban nahin uske ke liye awaz uthate dekha magar nirjan ke liye bhi aapke ehasaas behad gehare lage - bahut khub likha hai!

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद ओंकार जी

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  5. क्या कहा जाय, मति ही फिर जाती है.

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  6. बहुत-बहुत धन्यवाद

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  7. बहुत अच्छी रचना...शुभा जी राम राम

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  8. बर्तन की नहीं हर चीज़ जरूरत के बिना ऐसी हो जाती है ...

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