भोर की पहली किरन ,
दिलाती है अहसास ,
आगे बढने का ,
आकर जगाती है मुझे ,
हौले से आकर कान में कह जाती है कुछ ,
शायद कहती है -उठ जा ,उठ जा ,
छू ले बढ कर आसमां
मैं भी फिर उठ कर मुस्कुरा देती हूँ ,
कोशिश करती हूँ छूने की उसे ,
लेकिन वो मेरी पकड़ से छूट ,
भाग जाती है दूर...,
देकर अहसास कुछ कर गुजरने का
किसी और को जगाने ।
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