Monday, 13 July 2015

ज़िन्दगी

ज़िन्दगी क्या है
     समझ नहीं आया कभी
      लगती कभी अबूझ पहेली सी
      और कभी प्यारी सहेली सी
      कभी खुशनुमा धूप सी
       और कभी बदली ग़मों की
        फिर अचानक , छँट जाना बदली का
         मुस्कुराना हलकी सी  धूप  का
      क्या यही है ज़िंदगी ?
       लोगों से भरी भीड़ में
        जब ढूँढती हूँ उसे तो
         हर कोई नज़र आता है
       मुखौटे चढाए हुए
     एक नहीं ,दो नहीं
        न जाने कितने।
         बडा मुश्किल है समझ पाना
      और कभी जब परत दर परत
       उखडते है ये  मुखौटे
       तो आवाक सा रह जाना  पडता है
    फिर भी जिये जा रहे हैं
        दिन ब दिन  .....
      शायद यही है ज़िन्दगी ।
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