पिछले दिनों मेरी एक सखी ने मुझे तीन पुस्तकें पढ़ने को दी क्योंकि हम दोनों ही साहित्य प्रेमी हैं अतः पुस्तकों का आदान प्रदान चलता रहता है ।मैंने सबसे पहले पढ़ने को चुनी जयशंकर प्रसाद जी की अनमोल कृति "तितली"। वो इसलिए की पाठक को सबसे पहले आकर्षित करता है पुस्तक का शीर्षक ।
पुस्तक की शुरुआत इन संवादों से होती है - "क्यों बेटी !मधुआ आज कितने पैसे लाया ? नौ आने बापू ! और कुछ नहीं ? पांच सेर आटा भी दे गया है ।
वाह रे समय --कह के बुड्ढा एक बार चित्त होकर साँस लेने लगा ।
कैसा समय बापू ? चिथड़ों में लिपटा हुआ लंबा चौड़ा अस्थिर पंजर झनझना उठा । खांस कर उसने कहा _जिस अकाल का स्मरण कर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं, जिस पिशाच की अग्नि क्रीड़ा में खेलती हुई मैंने तुझे पाया था ।
बज्जो मटकी में डेढ़ पाव दूध चार कंडों में गरम कर रही थी ।उफनते दूध को उतारके उसने कुतूहल से पुछा _बापू ! उस अकाल में तुमने मुझे पाया था । लो दूध पीकर मुझे पूरी कथा सुनाओ । बापू बोले बस मैं तेरा बाप तू मेरी बेटी ।
मधुआ चुपचाप आकर झोंपड़ी के कोने में खड़ा हो गया।
बज्जो यानि तितली ,मधुआ यानि मधुबन । इस उपन्यास के नायक और नायिका ।
दूसरी और इंद्रदेव धामपुर के युवा जमींदार हैँ ।पिता को राजा की उपाधि मिली हुई । लंदन में बैरिस्टरी क़े दौरान उनकी मुलाकात शैला से होती है जो उन्हें भीख मांगती हुई मिलती है ।दयावश वो उसे अपने साथ ले आते है जो बाद में उनके साथ भारत आ जाती है । उनकी माता श्यामदुलारी है ,और बहिन माधुरी जो घर की प्रबंधकर्ता है । जरा चिड़चिड़े स्वभाव की है ।उसका पति उसकी खोज खबर नहीं लेता बस ससुराल के पैसो से ऐश करता है ।
नायक नायिका अब युवा हो चले हैँ। बाबा दोनों का ब्याह करना चाहते हैं । इसलिए मधुबन आत्मनिर्भर बनना चाहता है ।इसमें शैला उसकी मदद करती है ।दोनों की शादी होती है ।
इस बीच कई घटनाये घटती हैं । और फिर पंडित दीनानाथ की बेटी की शादी में ऐसी घटना घटती है जो मधुबन का जीवन ही बदल देती हैं । अचानक हाथी बेकाबू हो जाते है मधुबन नाचने वाली मैना को बचाता है ।समाज वाले उसपर उँगलियाँ उठाते है । वो भी मैना के मोह में पड़ जाता है जिसका बाद मैं उसे पछतावा होता है।
उधर मंदिर के महंत मदद मांगने आई राजो के साथ बदसलूकी करने का प्रयास करते हैं तो तैश मेंआकर वह मंदिर क़े महंत का गला घोंट देता है और पैसे लेकर भाग जाता है। मैना के घर छिपता है ।
वहां से निकल कर इधर उधर भागता है अंत मैं उसे बारह वर्ष की जेल होती है । जेल का जीवन बिताते हुए मधुबन को कितने ही बरस हो जाते हैं । एक कुत्सित चित्र उसके मानस पटल पर कभी कभी स्वयं उपस्थित हो जाता वह मलिन चित्र होता था मैना का । उसका स्मरण होते ही उसकी मुट्ठियाँ बन्ध जाती थी । सोचता एक बार यदि उसे कोई शिक्षा दे सकता । आज उसके मन में बड़ी करुणा थी ।वो अपने अपराध पर आज स्वयं विचार रहा था _"यदि मैना के प्रति मेरे मन में थोडा भी स्निग्ध भाव न होता तो क्या घटना की धारा ऐसे ही चल सकती थी ।यही तो मेरा एक अपराध है"। वो सोचता है कि क्या इतना सा विचलन भी मानवता का ढोंग करने वाला निर्मम संसार सहन नही कर सकता ।
" मेरे सामने कैसे उच्च आदर्श थे कैसे उज्जवल भविष्य की कल्पना का चित्र मैँ खींचता था सब सपना हो गया "।उसकी आँखों से पश्चाताप के आँसू बहने लगते । कभी जब तितली की याद आती तो मन में आशा का संचार होता । कभी ग्लानि कभी विकार के भाव ।सोचता क्या तितली मुझे पहले सा स्नेह करेगी? उसे अपने आप से घृणा होने लगती है । सोचता है अगर मैंने उसी का स्मरण किया होता तो आज ये दिन न देखना पड़ता । तभी जेल कर्मचारी उसे खबर देते है के अच्छे चाल चलन की वजह से उसे जल्दी रिहा किया जा रहा है । अब उसके सामने प्रश्न था कि कहाँ जाये।उसके पास स्वतंत्र रूप से अपना पथ निर्धारित करने का कोई साधन नही था । तभी उसे एक पुराना साथी ननी मिलता है वह उसके साथ मेले में जाता।है। उसके साथी ने साबुन की दुकान लगाई थी वहां इसलिए वो मधुबन को मदद के लिए ले गया था ।और वहां उसने पुनः मैना को देखा और उसकेशरीर में जैसे चिंगारियाँ छूटने लगीं ।बदले की भावना मन मे जागी । मन में भयानक द्वन्द चल रहा है ।
अचानक जोरदार आवाजे सुनाई देती हैं पुनः हाथियों का हमला ,इस बार मधुबन अविचल बैठा रहा । पता लगा के बीसोँ मनुष्य कुचल गए हैं । तभी मधुबन ने किसी को कहते सुना मैना,पुजारी सभी कुचले गए मधुबन स्तब्ध खड़ा है ।
उधर तितली पुत्र को जन्म देती है लोग उसे संदेह की निगाह से देखते है । वह समाज की परवाह किये बिना उसका अच्छा लालन पालन करती है । वह कन्या पाठशाला चलाती है । आत्मनिर्भर एवम् स्वावलंबी है ।
उधर शैला के प्रयत्नों से धामपुर गांव की उन्नति हो रही है।इन कई सालों में यह छोटा सा कृषि प्रधान नगर बन गया था ।साफ सुथरी सड़कें नालो पर पुल ,फूलों केखेत ,अच्छे बाग इत्यादि ।पाठशाला,बैंक और चिकित्सालय तो थे ही।तितली की प्रेरणा से दो-एक रात्रि पाठशालाएं भी खुल गई थी ।धामपुर स्वर्ग बन गया था।
किन्तु तितली अपनी इस एकांत साधना में कभी कभी परेशांन हो जाती ।
पुत्र जब पिता के बारे मे प्रश्न करता है तब बड़ी विचलित हो जाती है ।
जब वह पूछता -"माँ पिताजी ! तो कहती हाँ बेटा तेरे पिताजी जरूर एक दिन आएंगे ।" तो लोग क्यों ऐसा कहते हैं "? तितली बड़ी उदास है बेटे के मन में ये संदेह का विष किस अभागे ने उतार दिया उसे लगता है जैसे भीतर ही भीतर वो छटपटा रहा है । मोहन के मन में अपने पिता को लेकर कई प्रश्न हैं । कभी वो रामजस से पूछता है मेरे पिता थे ?हैं के मर गए ? पूछने पर कोई उत्तर क्यों नहीं देता ? मोहन का अभिन्न मित्र था रामजस ।
मोहन फिर माँ से प्रश्न करता है "माँ एक बात पूछूँ -पूछ मेरे लाल " । तितली उसकी जिज्ञासा से भयभीत हो रही थी कहती है बेटा तेरी माँ ने कभी कोई ऐसा काम नहीं किया कि तुझे लज्जित होना पड़े ।
तितली सोचती है कि मैंने इतने वर्षों तक इसलिए संसार का अत्याचार सहा कि एक दिन वो आएंगे तो उनकी थाती सौंप कर जीवन से विश्राम लूँगी किन्तु अब नहीँ और
निश्चय करती है के तितली इस उजड़े उपवन से उड़ जाए समा जाये माँ गंगा की गोद में । धीरे से किवाड़ खोलती है
सामने एक चिर परिचित मूर्ति दिखाई देती है ,वह मधुबन था ।
यह एक सामाजिक उपन्यास है जो दो युवा प्रेमियों के अन्तर्द्वन्द को प्रस्तुत करता है । सचमुच एक अद्भुत रचना है ।भाषा शैली सरल एवम् सजीव है और मेरे ख्याल से यह कृति हर वर्ग के पुस्तक प्रेमियों को सहज ही आकर्षित करने मे सक्षम है।
प्रसादजी ने इसमें नारी का आत्मनिर्भर व आत्मसम्मान से भरा रूप दिखाया है जिससे पता चलता है की नारी के प्रति उनके मन में श्रद्धा और सम्मान का भाव था ।
तितली एक स्वावलंबी और आत्मसम्मान से युक्त नारी है । प्रस्तुत है इसके कुछ अंश जो ये दर्शाते हैं - " मैंने अपनी पाठशाला चलाने का द्रढ़ निश्चय किया है। मैं साल भर में
ही ऐसी कितनी ही छोटी -बड़ी अनाथ लड़कियां एकत्र कर लूँगी जिनसे मेरी खेती बारी और पाठशाला बराबर चलती रहेंगी । तितली का मुँह उत्साह से दमकने लगा ।"
यह उपन्यास अत्यंत ही रोचक एवम् मार्गदर्शक है ।
समाज में फैली कुरीतियों ,विसंगतियों ,संकीर्णताओं पर करारा प्रहार किया गया है । मनोरंजक होने के साथ जीवन के बारे में बहुत कुछ सिखा भी जाता है ।
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