पिंजरे की मैना ये ,
किसे सुनाये दास्ताँ दिल की
कितनी खुश थी जंगल में वो
दिन भर चहकती रहती थी
इस डाल से उस डाल पर
इस टहनी से उस टहनी
जहाँ चाहे उड़ जाती थी
कच्चे -पक्के कैसे भी फल
तोड़ तोड़ खा लेती थी
कितना अच्छा जीवन था वो
आज़ादी से भरा हुआ
चलती थी मनमर्जियाँ
थी साथ कितनी सखियाँ -सहेलियाँ
अब इस सोने के पिंजरें में
घुटता है दम
नहीं चाहिए ये स्वादिष्ट व्यंजन
बस कोई लौटा दे मुझको
फिर से मेरी आज़ादी ।
Wah meri behna..
ReplyDeleteदिल को छूते शब्द भावमय प्रस्तुति ...।
ReplyDeleteधन्यवाद संजय जी
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