चलो दौड़कर ले आते हैं
नोटबुक इक नई
तीन सौ पैंसठ पन्नों वाली
कोरा सफेद
हर इक पन्ना
सोच समझ कर
भरना होगा
इक -इक पन्ना
सुंदर सुघड़
लिखाई से
प्रेम प्रीत की स्याही से ।
शुभा मेहता
31st December ,2016
Saturday, 31 December 2016
नई नोटबुक
Friday, 23 December 2016
समय
जीवन चलने का नाम
बहता है झरने की मानिंद
अविरत.......
समय के तो मानों
लगे हो पंख
उडता है
नही करता
किसी का इंतजार
बस समाप्ति की
ओर है ये वर्ष ,फिर....
नया साल है आने वाला
नई खुशियाँ है लाने वाला
कर ले पिछले काम खतम
फिर नईकौड़ी,नया दाव
भुला कर सब
शिकवे गिले
करनी है इक
नई शुरुआत।
शुभा मेहता
23rd Dec ,2016
Monday, 28 November 2016
प्रेम ...
प्रेम ...
खुशबू है
गुलाबों की
जैसे हर इक
पत्ती से आती आवाज
खूबसूरत गुनगुनाहट
प्रेम.....
गीत है
आत्मा का
लयबद्ध नृत्य है
सूर्य,चंन्द्रमा, तारे
सभी का प्रकाश है प्रेम.....
प्रेम .....
भक्ति है ,स्तुति है
कृष्ण है..
मीरा है ,राधा है.....प्रेम .....
शुभा मेहता
28th Nov 2016
Saturday, 26 November 2016
उड़ता पंछी
मैं , उडता पंछी
दूर....दूर .....
उन्मुक्त गगन तक
फैलाकर अपनी पाँखें
उड़ता हूँ
कभी अटकता
कभी भटकता
पाने को मंजिल
इच्छाएँ ,आकांक्षाएँ
बढती चली जातीं
और दूर तक जाने की
खाता हूँ ठोकरें भी
होता हूँ घायल भी
पंख फडफडाते हैं
कुछ टूट भी जाते हैं
और फिर , अपना सा कोई
कर देता है
मरहम -पट्टी
देता है दाना -पानी
जरा सहलाता है प्यारसे
जगाता है फिर से प्यास
और ऊपर उड़ने की
और मैं चल पड़ता हूँ
फिर से पंख पसार
अपनी मंजिल की ओर ....।
शुभा मेहता
19th Nov .2016
Friday, 25 November 2016
2016 -एक आकलन
सन् 2016 अब समाप्ति के कगार पर है । वर्ष का अंतिम महीना बस शुरु होने ही वाला है ।नये वर्ष के आगमन की प्रतीक्षा है ।
चलिए आज आकलन करते हैं, पिछले ग्यारह महीनों में , क्या खोया क्या पाया ?
अब जरा पीछे की ओर नजर दौडाते हैं.....
जनवरी 2016 ..नववर्ष की शुभकामनाएँ ,पार्टी, खेल ...वाह !कितना मजा आया था न ।
पर क्या हमें वो वादे याद हैं ,जो हमनें स्वयं से किये थे । जिन पर हमने ईमानदारी से चलने की कसम ली थी ,हाँ याद है न मैंने तो सुबह जल्दी उठकर व्यायाम करने की कसम ली थी ..और मैंने .................
पर समय कहाँ मिल पाता है रोज -रोज ......
साल के पहले दिन हम सभी जोश ही जोश में कुछ नया करने , जीवन में बहुत कुछ पाने के, और भी न जाने क्या क्या वादे स्वयम् से कर लेते हैं ,और फिर जुट भी जाते हैं ,उन्हें पूरा करने में पूरे जोश के साथ ।
फिर धीरे -धीरे जैसे -जैसे समय गुजरता जाता है सब ठप्प ....। कुछ ही लोग होते हैं जो अंत तक जुटे रहते हैं और सफल भी होते हैं
सोचने वाली बात है ऐसा क्यों होता है ,हम क्यों स्वयम् से किया वादा निभा नहीं पाते ?
कारण , या तो हमारा आलस या नीरसता और हम असफलता का दोष समय को देने लगते है ..क्या करें टाइम ही नही मिलता ऐसे वाक्यों से मन को बहलाते हैं
अरे, समय तो सभी के पास समान ही होता है फिर क्यों कोई सफल और कोई असफल ....
चलिये कोई बात नहीं ,अभी भी समय है ,एक महीना ,जितना भी हो सके उतना पा लो ,आज ही से शुरुआत कर दें ,कुछ तो मिलेगा और नववर्ष आने पर फिर एक नया प्रण ...पर इस बार पूरी ईमानदारी से ।
Saturday, 19 November 2016
मेरे अनुभव ( गाँठें )
बच्चे बगीचे में खेल रहे थे ,कोई दौड़ रहा था , कोई रस्सी कूद रहा था । मैं बेंच पर बैठकर उन्हें देख रह थी ।कितने निष्फिक्र थे सभी , अचानक एक बच्ची मेरे पास आकर बोली ,"आंटी , देखो न , हमारी रस्सी में गाँठ पड़ गई है क्या आप इसे खोल देगीं ।" मैंने कहा ,क्यों नहीं ,देखो अभी खोल देती हूँ .इतना कह मैंने रस्सी हाथ में ली देखा अभी तो गाँठ ढीली है ,झट से खोल कर उसे दे दी । बच्ची खुश होते हुए धन्यवाद बोलकर फिर खेलने में मगन ।
इधर मैं सोचने लगी चलो आसानी से खुल गई गाँठ , अभी ज्यादा कसी नही थी न ।
दोस्तों , हम भी जाने -अनजाने रोज ऐसी कई गाँठें अपनें मन रूपी धागे में लगा लेते हैं ,जिन्हें अगर समय रहते खोल न लिया जाए तो वो कसती ही जाती हैं और करती हैं हमें तनावग्रस्त ,लाख कोशिशों बावजूद हम उन्हें खोल नहीं पाते ।
कभी किसी की कही बात से मन को ठेस पहुँचती है ,और फिर बँध जाती है गाँठ। और चल पडते हैं हम नकारात्मकता की ओर, मन के हर कोनें में संग्रह करते जाते हैं गाँठों को ।ऐसा करके हम अपने आप को ही हानि पहुँचा रहे होते है ।(अब दुनियाँमें सभी लोग हमें एक जैसे तो नहीं मिलने वाले ।)
पर अब नहीं .....चलिये एक कदम सकारात्मकता की ओर बढाएँ...समय आ गया है एक-एक गाँठ खोलने का , आँख मूंदकर धीरे-धीरे एक एक गाँठ खोलने का प्रयत्न करें, जरूर सफल होंगे और मन का बोझ हल्का होने लगेगा फिर कदम हल्के होंगें ,जीवन से रोग दूर होंगे ,लक्ष्य प्राप्ति सुगम बनेगी ।
एक कदम सकारात्मकता की ओर आज से ही....।
Friday, 11 November 2016
सवेरा
उठो जागो मन.....
हुआ नया सवेरा
आ गये आदित्य
लिए आशा किरन नई
अब कैसा इंतजार ....
रमता जोगी ,गाए मल्हार
झूम रहे खग वृंद
नाचे गगन अपार
कलियाँ चटक उठी
चटक कर
करा रही
नवसृजन आभास
हरी दूब पर
ओस बूँदों नें
सजा दिए जैसे
मोती हार
पक्षियों का मीठा कलरव
जगा रहा है बार -बार
उठो जागो मन....
अब कैसा इंतजार....
हुआ नया सवेरा .....
शुभा मेहता
11th Nov 2016
Thursday, 27 October 2016
दीपावली
लो आई फिर
दीपावली
चलो ,इस बार
मन के किसी कोने में
दीप जलाएं इक
शांति का ,
प्रीति का
स्नेह का
फिर इस
मन दीप से
दीप से दीप जलाएं
दीपमाल से गुँथ जाएँ
जैसे इक माला के फूल
फूल सुगंध से महकाएं
ये दुनियाँ सारी ।
शुभा मेहता
27th Oct. 2016
Tuesday, 18 October 2016
मेरा बचपन
वो बस्ता लेकर भागना
सखी -सहेलियों से
कानाफूसियाँ
भाग -दौड में
चप्पल टूटना
टूटी चप्पल जोडना
नाश्ते के डब्बे
कपडों पर स्याही के धब्बे
माँ से छुपाना
ओक लगाकर पानी पीना
खेल की छुट्टी में
बेतहाशा दौडना
घुटनों को तोडना
कपडों की बाँह से
पसीना पोंछना
किरायेकी साइकल
के लिए लडना -झगडना
छुपन-छुपाई गिल्ली -डंडा
सितौलिया , भागम भाग
न ट्यूशन का टेंशन
न पहला नंबर ही लाने का झंझट
कितना प्यारा था मेरा बचपन
अब इस आधुनिकता की
दौड में कहाँ खो गया ये सब
आज के बच्चों का तो
जैसे छिन सा गया बचपन ।
शुभा मेहता
18th October 2016
Friday, 16 September 2016
वाह री दुनियाँ
दूर के ढोल सुहावने
पास बजें तो शोर
घर की मुर्गी दाल बराबर
बाहर की अनमोल
कोई अपना ज्ञान बखाने
अधजल गगरी को छलकाए
कोई भैंस के आगे बीन बजाए
पर उसको कुछ समझ न आए
सबको अपना-अपना ध्यान
अपनी ढ़़फली अपना राग
कोई फटे में पैर फँसाए
और उलझ कर खुद रह जाए
अपनी गलती कोई न माने
इक दूजे पर दोष लगाए
इसका ,उसका ,तेरा ,मेरा
करके यूँ ही उमर गँवाए
कोई अंधों में काना राजा
कहीं शेखचिल्ली सी बातें
अजब -गजब हैं लोग तिहारे
वाह री दुनियाँ ,तेरे रूप निराले ।
शुभा मेहता
16th september.2016
Wednesday, 14 September 2016
मातृ भाषा
हिंदी मेरी आन है
हिंदी मेरी शान
मातृ भाषा मेरी
तुझको मेरा प्रणाम
कितनी मीठी
कितनी सहज
शब्दों का भंडार
छन्द -अलंकारों से
सुसज्जित
कभी मुहावरेदार
अभिधा ,लक्षणा व्यन्जना
है इसका अदभुत् संसार
पर आज मेरी
मातृभाषा है कुछ उदास
उसके अपने बच्चे ही
जब कर रहे उसका
तिरस्कार
नहीं रहा उनके जीवन में
माँ हिंदी का स्थान ।
शुभा मेहता
7th Nov , 2016
Wednesday, 24 August 2016
कान्हा.....
ओ कान्हा......
इक बार तो आओ
संग मेरे भी
फाग रचाओ
अरे , सुनते क्यों नहीं ?
बैठ कभी कदंब डाल पर
छेडो इक तो मधुर तान
सुना है , पहले दौडे़ आए थे
सुन पुकार द्रौपदी की
अब क्या हुआ है ?,
क्यों सुनाई नही देती
हजारों द्रौपदियों की
करुण पुकार
न जानें कितनें
दुर्योधन और दुःशासन
करते चीरहरण
प्रश्न तो यही
मेरा है तुमसे
क्या तुम भी
इस कोलाहल में
सुन नही पाते
करुण पुकार ....
शुभा मेहता
24 Aug ,2016
Saturday, 13 August 2016
एकाकी
सुना था
कान होते हैं
दीवारों के भी
पर अब जाना
कि कान ही नहीं
दीवारें तो
होती हैं सशरीर
जब से सीखा है
मैनें जीना
बंद दरवाजों
के भीतर
तब महसूस किया
कि ये तो
बतियाती हैं
घंटों मुझसे
कभी हँसाती
कभी रूलाती
और कभी तो
अपनी बाहें
फैलाकर समेट
लेती हैं
और ले जाती हैं
मुझे इस अकेलेपन से
कहीं दू.....र
जानती हूँ कि
अब ये ही है
मेरी संगी -साथी ।
शुभा मेहता
13th Aug ,2016
Saturday, 6 August 2016
दोस्ती
बचपन में इक दूजे की
थाम उँगली चलना
खेलना -कूदना
लडना -झगडना
एक ही खिलौने के लिए
कभी शाला में
गलती होने पर
एक -दूसरे को
डाँट से बचाने की कोशिश
कभी एक -दूसरे की
कॉपियों से नकल करना
करना अदल-बदल
टिफिन अपने -अपने
कभी घर बुलाना
या उसके घर जाना
घंटों बैठकर
यूँ ही बतियाना
ये नाता दोस्ती का
है कितना प्यारा
कि दिल के
किसी कोने में
दबी हुई अनकही बातें
खुल जाती हैं
सहजता से
उसके आगे
परत दर परत
शायद यही
होती है दोस्ती
समय के साथ
बढती दोस्ती ।
शुभा मेहता
6th Aug ,2016
Saturday, 16 July 2016
झूला
एक वृक्ष कटा
साथ ही
कट गई
कई आशाएँ
कितने घोंसले
पक्षी निराधार
सहमी चहचहाहट
वो पत्तों की
सरसराहट
वो टहनियाँ
जिन पर
बाँधते थे कभी
सावन के झूले
बिन झूले सावन
कितना सूना
कटा वृक्ष
वर्षा कम
धरती सूखी
पड़ी दरारें
न वृक्ष
न झूला
न सावन ?
शुभा मेहता
17th , July ,2016
Tuesday, 5 July 2016
लोग
बंद किवाड़ों की
दरारों से झाँकते लोग
दिवारों से कान लगा कर
कुछ सुनते -सुनाते लोग
फिर, लगाकर नमक - मिर्च
किस्से घडते - घड़ाते लोग
शब्दों के अभेद्य
बाण चला कर
दिलों को तार -तार
कर जाते लोग
न सोचे , न समझें
बस , सुनी -सुनाई पर
एक दम राय
बनाते लोग
कभी हँसते साथ
तो कभी वो ही
रुलाते लोग
सामने कुछ
पीछे कुछ और
यही दोगलापन
दिखाते लोग
अपना समय
बस ,इसी तरह
बिताते हैं लोग
वाह रे लोग , वाह रे लोग ।
Thursday, 2 June 2016
मिट्टी
सुबह-सुबह अचानक
मिट्टी की सौंधी खुशबू
तर कर गई
तन -मन को
उठ कर देखा
तो पाया
बरखा की बूँदो ने
भिगो दिया है
इसको ज़रा
उसीकी खुशबू थी
शायद मेरी तरह
सभी के मन को
भाती है ये खुशबू
गाँव की मिट्टी
देश की मिट्टी
क्या -क्या नहीं
करवाती ये मिट्टी
बच्चों को भी
बड़ी भाती ये मिट्टी
खेल -खेल में
इससे बनाते वो
घरौंदे, महल
मिट्टी जो है
हमारे जीवन काआधार
देती फल, फूल ,अनाज
क्यों लगती इतनी प्यारी
ये मिट्टी
आज समझ आया
अरे हम भी तो
इसी से बने हैं
तभी तो करते हैं
इससे इतना प्यार ।
Sunday, 15 May 2016
शब्द
शब्द ...
प्रस्फुटित होते हुए
धीरे -धीरे
ले रहे आकार
एक रचना का
टेढ़े -मेढ़े
छोटे ;बड़े
सभी तरह के
शब्द ... .
दिलो -दिमाग पर छाये
ऊपर -नीचे हो रहे
किस शब्द से
शुरुआत करूँ
बन जाये
गीत एक
संगीत एक
ले रहा आकार
जहन में
धीरे -धीरे
कह रहा
चुपके से
ढाल दो
हमें भी
संगीत में ।
Saturday, 23 April 2016
किताबें
वो कहते हैं कि
नहीं बेहतर
दोस्त कोई
मुझ जैसा
जिसने भी की
दोस्ती मुझसे
वो हमेशा
सुख पाया
अरे नहीं पहचाना?
मैं हूँ किताब
पर आजकल
हो गई हूँ जरा
एकाकी
लोगों को हो गया है
जरा कम मुझसे लगाव
पड़ी रहती हूँ
रैक पर , उपेक्षित सी
क्योकि आजकल
मेरी जगह है
इंटरनेट, टीवी
कुछ लोग सिर्फ
दिखावे के लिए
सजाते है मुझे
कुछ लोग
बेच डालते है
रद्दी में
मुझ में संचित
ज्ञान के बदले
कुछ पैसे पाकर
खुश हो लेते
थोडा इत्मिनान है
कुछ लोग तो हैं
अभी भी
जिन्हें है मेरी क़द्र
जो चाहते है
अभी भी मेरा साथ
चलो इसी बात से
मैं खुश हूँ
मैं हूँ किताब .........
माँ धरा
हे माँ धरा
कहाँ से लाती हो
इतना धैर्य
कैसे सह लेती हो
इतना जुल्म
इतना बोझ
इतना कूड़ा -कचरा
करते हैं हम मानव
अपनी माँ को
कितना गन्दा
फिर भी बदले में
देती हो तुम
मीठे फल ,अनाज
हरे भरे वृक्ष
उनकी छाँव
समेटे रहती हो
सदा सबको
अपने ममता के
आँचल में
फिर क्यों हम
तेरे सब बच्चे
करते इतना
जुल्म तुझ पर
काटते पेड़ों को
पर्वतों को
पर अब हमे
सम्भलना होगा
करनी होगी
तेरी हिफाज़त
प्रेम से
करें सब आदर जो तेरा
रखें सब तुझे
स्वच्छ ,सुंदर
कमसे कम
एक एक पेड़
लगाये सभी
करे जतन उनका
तभी बन पायेगी
माँ धरा स्वर्ग सी ।
रेशमी रजाई
छोटी थी तब
माँ ने इक दिन
एक कहानी सुनाई थी
थी जिसमे एक राजकुमारी
ओढ़े जो रेशमी रजाई
बस तभी से उसने भी
चाही एक रेशमी रजाई
ओढ़ जिसे वो भी
बन जाये राजकुमारी सी
रोज़ स्वप्न में बन जाती
वो राजकुमारी
होती थी सपने में
उसके पास भी
रेशमी रजाई
पर जब उठती
पाती पैबंद अपनी
पुरानी रजाई पर
मन मसोस कर रह जाती
काश , सच्ची -मुच्ची
होती उसकी भी
एक रेशमी रजाई
Wednesday, 30 March 2016
यथार्थ
मुट्ठी में बंध रेत
खिसक रही है
धीरे -धीरे
बना रही है
कुछ निशाँ
शायद अपना नाम
लिख रही है
पढ़ रही हैं उसे
अचानक , तेज
लहर ने आकर
मिटा दिया
वो नाम , वो निशाँ
कुछ न था शेष
खोली मुट्ठी
तो पाया
हाथ रीता
न नाम न निशाँ ।
Tuesday, 22 March 2016
होली
Wednesday, 16 March 2016
यादें
यादें कभी भी
चुपके से आकर
गुदगुदाती हैं मन को
रखा है सहेज कर
दिल के कोनों की
किसी बंद अलमारी मे
सहसा खोल दरवाज़ा
हौले से झाँक लेती हैं
और कभी दे जाती हैं
होठों पर एक मधुर मुस्कान
कभी अकेले में
खिलखिलाहट
कोई खट्टी कोई मीठी
औऱ कभी भिगो जाती हैं
कपोलों को अश्रु धार से
यादें ........
जिदंगी
सुबह -सुबह आज
कोई मिली मुझे
मैंने देखा उसे
बड़ी खूबसूरत सी
सजी -सँवरी सी
ग़ौर से देखा मैंने
कोशिश की पहचानने की
शायद , कहीं देखा है
सोचा , चलो उसी से
पूछते हैं
मैंने पूछा कौन हो तुम ?
लगती तो पहचानी सी हो
बोली , अरे मैं ज़िन्दगी हूँ
तुम्हारे साथ ही तो रहती हूँ
पर तुमने तो जैसे मुझे
जीना ही छोड़ दिया
कहाँ है वो ख़ुशी
कुछ उदासीन से
रहते हो अरे ,
जब तक मै हूँ साथ
हँस लो , मेरा लुत्फ़ उठा लो ।
शुभा मेहता
Thursday, 3 March 2016
अभिलाषा
माँ , अभी तो हूँ मैं
छोटी सी , नन्ही सी
फिर भी नन्हे ये हाथ मेरे
कभी ढोते बोझा
और कभी होता
इन हाथों में मेरे
झाड़ू या पोंछा
करती हूँ दिनभर
बस यही सब
थकती तो हूँ मैं
पर मुझे कहाँ आराम
देखती हूँ जब
हमउम्र बच्चों को
खेलते ,-कूदते
मेरा भी
मन करता है
चाहे हूँ मैं
मजदूर की बेटी
पर मन तो है न
मेरे भी।पास
चाहता है वो भी
मैं भी खेलूँ -कूदूँ
हों मेरे पास भी
कॉपी -किताब
सुंदर सी पेंसिल
ले जिससे कोई
शब्द आकार
देखती हूँ मैं भी ये
सपना सलोना
दिलवा दो न
मुझे भी माँ ....
कॉपी -किताब
भेजो न मुझे भी
स्कूल तुम माँ
पढ़ना है मुझे भी
बनना है कुछ
नाम करना है
रोशन तेरा ।
Friday, 19 February 2016
मेरी सहेलियाँ
मैं , मुस्कान ,हँसी और ख़ुशी
बचपन की थी खास सहेलियाँ
हरदम रहती साथ -साथ
खेला करती , कूदा करती
फिरती बनकर मस्त मलंग
मुस्कान सदा होंठों से चिपकी रहती
हँसी भी उसके साथ ही रहती
बीत रहे थे बचपन के वो दिन
ख़ुशी के संग
फिर एक दिन
किसी ने दरवाजे पर
दी दस्तक
देखा तो खड़ी थी चिंता
मैंने फटाक से
बन्द किया दरवाजा
नहीं -नहीं .....
तुम नही हो मेरी सखी
पर वो तो थी बड़ी
चिपकू सी
पिछले दरवाजे से
हौले से आ धमकी
एक न जाने वाले
अनचाहे मेहमान सी
भगा दिया मेरी
प्यारी सहेलियों को
दे रही है
दिन ब दिन
माथे पर लकीरें
केशों की अकाल सफेदी
लगता है अब तो
गुमशुदा की तलाश का
इश्तिहार देना होगा
अगर किसी को
मिले कहीं
हँसी , ख़ुशी , मुस्कान
उन्हें मेरा पता बता देना ।
Thursday, 11 February 2016
जग जननी
हे जगजननी
वीणावादिनी
हंसवाहिनी
करते तुम्हे प्रणाम
हम सब बालक
है अज्ञानी
दे दो थोडा ज्ञान
करें वन्दना
तव चरणों में
कर दो जग उत्थान
दीप जले चहुँओर ज्ञान का
फैले तेज प्रकाश
मन के दीप भी
प्रेम बाती से
रोशन कर दो
हर लो तम अज्ञान
तुम तो माँ हो
हम बच्चों की
सुन लो करुण पुकार ।
Sunday, 31 January 2016
प्रतीक्षा
कब से खड़ी
झरोखे से
बाट निहारूँ
कहाँ हो तुम
और ये चाँद निर्मोही
देखो मुझे देख
कैसे मुस्कुरा रहा है
जैसे चिढ़ा रहा है
कह रहा है
मैं तो रहता साथ
सदा चाँदनी के
मैं हूँ तो वो है
बने एक दूजे के लिए
मैं भी क्या कहूँ
कहाँ हो तुम ?
आँखे पथरा गई
राह तकते -तकते
पथराई सी
ना जाने कब
बन्द हुई
और फिर सपने में
तुम आये , बाहें फैलाये
और मैं खिंची सी चली गई
चलती ही गई
पा ही लिया तुम्हे
सपना ही सही
ख़ुशी दे गया
जब आँख खुली
खिड़की से चाँद
अभी भी मुस्कुरा रहा था .......
Saturday, 23 January 2016
बसंत -बहार
देखो बसंत - बहार में
अवनि ने धरा रूप नया
बन गई हरा समन्दर
इठलाती , बलखाती
ओढ़ छतरी गगन की
झुलाती पल्लू बसन्ती
हँसती गुनगुनाती
पल्लू पर ओस बूँदों नें जैसे
टांक दिए हों हीरे मोती
हुई अलंकृत फूल सरसों से
है इसकी तो छटा निराली
कोयल गाती पंचम सुर में
फूल-फूल पर डोलें भँवरे
तितलियाँ भी सजी रंगों से
उड़ती -फिरती लगती प्यारी
प्रकृति ने जैसे खोल दिया हो
जादुई पिटारा बाँटने को रूप
हर फूल , कली को
नदी ,समंदर को
खेतों को खलियानों को
मन करता है
भूल सभी कुछ
नाचें , गाएं ख़ुशी मनाएं ।
Thursday, 14 January 2016
आओ त्यौहार मनाएं
आओ आज सभी मिलकर
संक्रांति पर्व मनाये
चढ़ जाये सब
छत पर भैया
खूब पतंग उड़ाए
हो जाये पेच पर पेच
ढील पर ढील दे भाई
सब मिलकर फिर
बोले भैय्या - वो काटा ......।
तिल के लड्डू , चिक्की , गजक
बोर , गन्ने और जामफल
खूब मजे से खाएं ।
लेकिन देखो , सम्हल के भैया
कोई पक्षी डोर में फँसकर
कहीं उलझ न जाए
जीवन किसी निरीह प्राणी का
खतरे में न पड़ जाये ।