खिड़की से देखती हूँ
चंदा ,सूरज , तारे
दूर -दूर तक गगन विशाल
कितने सुंदर !!
ऊँची -ऊँची अट्टालिकाएँ
रंगी हुई ,खूबसूरत रंगों से
दौड़ती कारें , बड़ी -बड़ी गाड़ियाँ
एक दूसरे से ,रेस लगाते हुए ..
सब बेजान हैं
पर ,करते हैं आर्कषित
अपनी चमक से
बाहरी चमक
बाहरी हँसी
सब आडंबर ....
पर खिड़की के अंदर ....
है जो मन की खिड़की
वहाँ ..सब कुछ अलग सा
रंगहीन ,उदास ..
कुछ घावों के निशान
कुछ अपनों के दिए
कुछ परायों के ......
इति...
शुभा मेहता
31oct ,2017
सुन्दर अति सुन्दर रचना आज बाहरी दिखावा और आडम्बर का ही युग है कविता यथार्थ को दर्शाती है एवं बहुत प्रासंगिक है सहज शब्द विन्यास कहीं कोई क्लिष्टता नहीं सहज सुन्दर शब्दों के प्रयोग ने कविता को प्रभावशाली बनाया। अब लगा कि लेखनी का बम्बा फूटा।बहन तू बधाई की पात्र है और तेरी अनगिनत प्रतिभा का कायल रहा हूँ। बहुत-बहुत प्यार एवं आशीष।
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Delete😊😊😊
Deleteअंतर की पीड़ा कई बार बाहर की असल चमक को भी आडम्बर मान लेती है ... इस पीड़ा को सहेज के आगे बढ़ना ही जीवन है ...
ReplyDeleteभावपूर्ण सीधे बात कहती है रचना ...
धन्यवाद दिगंबर जी ,हौसला बढा़ने के लिए ।
Deleteवाह्ह्ह....शुभा जी,क्या लाज़वाब अभिव्यक्ति है।
ReplyDeleteमन जब उदास हो तो कुछ भी नहीं भाता।
सीली आँखों में ख्वाब कोई सूखा नहीं आता।
बहुत बहुत धन्यवाद श्वेता जी ।
Deleteभावपूर्ण सुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद पम्मी जी ।
DeleteSunder rachna...
ReplyDeleteDhanyvad bhai
Deleteसीधे दिल पर दस्तक दी है
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद संजय जी।
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