कौन हूँ मैं ?
आज उम्र के
इस मोड़ पर आकर भी
ढूँढ रही हूँ
अपनी पहचान
क्या है मेरा वजूद
क्या एक नाम ही
काफी नहीं ?
या फिर
होना एक हिन्दुस्तानी
बस इतना ही बहुत है
मेरे लिए
एक गर्वित हिन्दुस्तानी
क्यों उलझ जाते हैं हम
प्रांतवाद ,जातिवाद के
चक्कर मे...
इक इंसान होना काफी नह़ी
बस बना ली हैं
दीवारें..
मजहब की ,
भाषा की
दीवारें ही दीवारें
इन सबकी
भूलभुलैया में
खोती जा रही
इंसानियत कहीं
चलो फिर से
थोडी
ही सही
कोशिश करें , गिरादें
ये मानव निर्मित दीवारें
चलो चलें......।
शुभा मेहता
28th Oct ,2017
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 29 अक्टूबर 2017 को साझा की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.com पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteआभार ,दिग्विजय जी ,मेरी रचना कै पाँच लिंकों का आनंद में शामिल करने के लिए ।
DeleteDer aaye par bahut durust aaye 6 mahine ke antaral par teri iss kavita ki jitni bhi daad di jaaye woh kam hogi yatharth se judi aur aaj ke parivesh mein khari utarti ek adbhut shabdavali se rachit teri kavita ne meri saari shikayaton ko dho daala ise kahte hain abhivyakti wah bahen teri vajah se ham bhaiyon ka sar uncha aur maan badh jaara hai khoob sukhi rah khush rah deerghayu ho mera adhel laadh aur pyaar tujhe 💐💐💐💐💐💐💐😊😊😊😊😊😊👏👏👏👏
ReplyDeleteधन्यवाद भाई ।
Deleteसही कहा आपने
ReplyDeleteआभार ,ओंकार जी ।
Deleteक्या बात है शुभा जी बहुत पावन की सुंदर अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteसुंदर रचना....वाह्ह्ह👌👌
धन्यवाद श्वेता जी ।
DeleteChalo Chalen... Very well expressed. We have built walls around us that reflects nothing but an insecurity.
ReplyDeleteThanku so much Surajit ji.
DeleteBahut hi achcha likha h...my multi talented sister..
ReplyDeleteधन्यवाद भाई ।
Deleteसुन्दर।
ReplyDeleteआभार ,सुशील जी ।
Deleteबहुत सुंदर भवपूर्ण रचना शुभा जी
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद रितु जी ।
Deleteबहुत सुंदर भवपूर्ण रचना शुभा जी
ReplyDeleteसच में अब भेदभाव की दीवारें हटाकर सिर्फ मानव और हिंदुस्तानी के रूप में ही अपनी पहचान बनाने का समय है...सादर ।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद मीना जी ।स्वागत है आपका मेर ब्लॉग पर ।
Deleteबहुत सुंदर भवपूर्ण रचना
ReplyDeleteधन्यवाद नीतू जी ।
Deleteबहुत ही सुन्दर सन्देश देती हुई ,एकता के सूत्र में बंधने को प्रेरित करती रचना। सादर
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद ध्रुव जी ।
Deleteबहुत बहुत धन्यवाद ध्रुव जी ।
Deleteआदरणीया शुभा जी बहुत दिनों बाद आपकी रचना पढ़ी ,मन हर्षित हुआ। धन्यवाद
ReplyDeleteआभार ध्रुव जी ।
Deleteबहुत ही सुन्दर....
ReplyDeleteआभार सुधा जी।
ReplyDeleteये दीवारें हम ने ही बनाई हैं ... समाज ने बनाई हैं इनको हम ही तोड़ सकते हैं ... सोचने को मजबूर करते भाव ...
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद दिगंबर जी ।
Deleteबहुत सुंदर रचना शुभा जी। वर्तमान परिवेश की हालत एक संवेदनशील हृदय को इसी तरह। सटीक चिंतन के साथ व्यापक संदेश देती रचना। मनुष्य सामाजिक प्राणी है सब के साथ घुल मिल कर रहना चाहता है लेकिन चालाकी और धूर्तता अपना कमाल दिखाने के लिए हमारे बीच खाई पैदा करती है। बधाई एवं शुभकामनाएं।
ReplyDeleteआभार , यादव जी ।
Deleteबहुत सुंदर रचना, शुभा जी।
ReplyDeleteधन्यवाद ज्योति जी ।
Deleteआपकी रचना की प्रशंशा के लिए मेरे पास हमेशा शब्द कम पड़ जाते हैं...इस बार भी वो ही हाल हुआ है...कमाल का लिखती हैं आप...
ReplyDeleteबहुत -बहुत धन्यवाद ....बस कभी कभी कलम चला लेती हूँ ...
Deleteआदरणीया /आदरणीय, अपार हर्ष का अनुभव हो रहा है आपको यह अवगत कराते हुए कि सोमवार ०६ नवंबर २०१७ को हम बालकवियों की रचनायें "पांच लिंकों का आनन्द" में लिंक कर रहें हैं। जिन्हें आपके स्नेह,प्रोत्साहन एवं मार्गदर्शन की विशेष आवश्यकता है। अतः आप सभी गणमान्य पाठक व रचनाकारों का हृदय से स्वागत है। आपकी प्रतिक्रिया इन उभरते हुए बालकवियों के लिए बहुमूल्य होगी। .............. http://halchalwith5links.blogspot.com आप सादर आमंत्रित हैं ,धन्यवाद! "एकलव्य"
ReplyDeleteअतिसुन्दर शुभा जी
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