उलझन सुलझी ..?
नहीं .....?
कोशिश करो ..
कर तो रहे है ,
पर ये धागे
इतने उलझ गए हैं
कि सुलझ ही नहीं रहे
अरे भैया ,धीरज रखो
आराम से ..
एक -एक गाँठ ..
धीरे -धीरे खोलो
याद करो ,तुम्ही नेंं
लगाई थी न ये गाँठें
नफरत की ,
ईर्ष्या की , द्वेष की
अब तुम्हें ही सुलझाना है इन्हें
धैर्य से ,प्रेम से
प्रीत से ,प्यार से ... ।
शुभा मेहता
9th Oct,2018
Wah adbhut kavita samay ke pariprekshya mein aur samay ki maang hai ye khud ke dwara paida ki gyi uljhano ka hame hi nivaran krna pdega behadd khubsurat panktiyon se sanjoya hai toone choti par bahut teekshna kavita seedhe dil me utarti hai bahut bahut pyaar aur khoob likh
ReplyDelete😘😘😘
,😊😊😊😊
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (10-10-2018) को "माता के नवरात्र" (चर्चा अंक-3120) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय राधा जी ,मेरी रचना को "माता के नवरात्र"चर्चा अंक में स्थान देने हेतु ।
Deleteसही बात हैं शुभा,यदि हम प्यार से नफरत की गांठो को खोलने की कोशिश करेंगे तो वो जरूर खुलेगी। बहुत सुंदर।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद ज्योति ।
Deleteसही है दीदी हुमीने लगाई है ये गांठ और सुलझाना भी हमे ही है अच्छी रचना है
ReplyDeleteधन्यवाद नितिन भाई ।
Deleteसुंदर भावपूर्ण रचना, बोध देती हुई सी
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद सखी ।
Deleteसच कहा है प्रेत प्रेम से हर उलझन सुलझती है ...
ReplyDeleteधागा धीरे धीरे सुलझाना अच्छा होता है ... सुन्दर शब्द रचना है ...
बहुत बहुत धन्यवाद ।
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक १४ अक्टूबर २०१८ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
जरूर ,श्वेता
Deleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद ।
Deleteअच्छी रचना.
ReplyDeleteहद पार इश्क
बहुत बहुत धन्यवाद ।
Deleteबहुत ही सुन्दर रचना
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद सखी ।
Deleteबहुत सुंदर शुभा जी,जब बांधी है तो छुडाई तो होगी सटीक रचना
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका कुसुम जी ।
Deleteयाद करो ,तुम्ही नेंं
ReplyDeleteलगाई थी न ये गाँठें
नफरत की ,
ईर्ष्या की , द्वेष की
अब तुम्हें ही सुलझाना है इन्हें
धैर्य से ,प्रेम से
प्रीत से ,प्यार से ... । बेहद खूबसूरत रचना
बहुत-बहुत धन्यवाद सखी ।
Deleteबहुत सुन्दर शुभा जी. ऐसों के लिए ही कहा गया है -'घर में आग लगाय, जमालो दूर खडीं.' और अब जमालो आग बुझाने की गुहार लगा रही हैं. वैसे हमारे देशभक्तों की ऐसे कलई खोलना खतरनाक हो सकता है. सबके सब जमालो ही हैं.
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय .
Deleteबहुत सुन्दर सीख देती लाजवाब रचना...।
ReplyDeleteवाह!!!
बहुत बहुत धन्यवाद ।
Deleteधागा धीरे धीरे सुलझाना अच्छा होता है ... बेहद खूबसूरत रचना
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद संजय जी ।
Deleteबहुत सुन्दर सीख देती रचना .
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद मीना जी .
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