Wednesday 24 October 2018

बदलाव

बचपन का भी क्या खेला था
घर में ही लगता जैसे मेला था
भुआ-भतीजे ,चाचा -चाची
  मामा -मामी ,,नाना -नानी
इत्ते सारे भाई -बहन
  खेला करते संग -संग
   लडते -झगडते
   फिर मिल जाते
  नही किसी से शिकायत करते ।
   नानी,दादी ,अम्मा ,मौसी
    सब चौके में जुट जाती
     रोज -रोज कुछ नया बनाती
     और प्यार से सबको खिलाती
       न कोई शिकवा ,न शिकन
       रात ढले सबके बिस्तर छत पर ही लग जाते थे
       वाह !! वो दिन भी क्या दिन थे ...
        अब कहाँ वो दिन ,वो आपसी प्रेम
         सब अपने में व्यस्त ..
          मिले भी अगर तो
           सबको अपना कमरा चाहिए
            खाने का वो स्वाद कहाँ
            बाहर से ही मँगवाया जाता है
             कौन बनाए इत्ता खाना
              प्रश्न जटिल हो जाता है
              नया जमाना आया है भैया
              नया जमाना आया है ।
  
     शुभा मेहता
     25th Oct 2018
 

23 comments:

  1. Sach mein vo bhi kya jamana thha itne saare log kitne araam se ek kamre me rah lete the chat par paani ka chidkav aur phir gappe lgate huye sona bachpan ki yaad dilati gai teri kavita aur is vidha mein parangat haasil hai tujhe shabdavali bahut sahaj seedhe asr krti hai bdhai ho bahen sarthak kavita ke liye 👏👏👏😘😘😘😘😘😘💐💐💐💐💐😊😊😊😊😊

    ReplyDelete
  2. जी दी बेहद सुंदर और सच्ची तस्वीर खींची है आपने शब्दों से...दी क्या यह हमारे सोमवारीय विशेषांक के लिए है अगर है तो कृपया पाँच लिंक में दिये हमक़दम का दो लाइन जरुर लिखें..सबसे ऊपर ब्रेकेट में।
    सादर

    ReplyDelete
  3. Replies
    1. बहुत बहुत धन्यवाद ।

      Delete
  4. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक २९ अक्टूबर २०१८ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

    ReplyDelete
  5. वाह शानदार रचना शुभा जी

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बहुत आभार सखी ।

      Delete
  6. लाजवाब रचना.....

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बहुत धन्यवाद सुधा जी ।

      Delete
  7. Replies
    1. बहुत बहुत धन्यवाद सखी ।

      Delete
  8. सच में शुभा दी अपने बचपन का मजा ही कुछ और था। कभी कभी सोचती हूं कि हम लोग जितना खेले, आपस में जितनी मस्ती की वो आजकल के बच्चों के नसीब में नहीं है। बचपन से पढ़ाई का तनाव उनका बचपन छीन लेता हैं। बहुत बढ़िया प्रस्तूति।

    ReplyDelete
    Replies
    1. सही है ज्योति । बहुत बहुत धन्यवाद।

      Delete
  9. शुभा दी आपने शब्दों से...सच्ची तस्वीर खींची है लाजवाब यूँ ही लेखनी सदा चलती रहे

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत-बहुत धन्यवाद संजय जी ।

      Delete
  10. बदलते वक़्त को बख़ूबी लिखा है ... ये बदलाव तो आएगा जब नेट समय लेने लगा है ... प्रतिस्पर्धा बढ़ने लगी है ...

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत-बहुत धन्यवाद दिगंबर जी ।

      Delete