Saturday, 9 May 2015

जीवन संध्या

अरे ,मैं हूँ एक चटका हुआ कप
     पड़ा हूँ एक कोने मैं
    रखा जाता है मुझमे कभी
     बचा हुआ आटा या तेल
    मुझे याद है अभी भी वो दिन
     जब आया था इस घर में
     मेरी मालकिन रोज चमकाती मुझे
     शान से मेरी खूबसूरती बयां करती
   और मैं ,गर्व से फूला न समाता  ।
   आज आलम है कुछ और
   मेरे बाकी के साथी मुझे चिढ़ाते हैं
     और आज तो हद हो गई
     किसी ने कहा -अरे ये टूटा कप
     क्यों रखा है इसे
     बड़ा अपशगुन होता है
     और फिर,फ़ेंक दिया गया मुझे
     कचरापेटी में
     तब से पड़ा हुआ हूँ इस गंदे ढेर पर
       बस देखा करता हूँ
     आते जाते लोगों को
      ना  जाने कब कोई आएगा
    मुझे चूर-चूर कर जायेगा
   शायद यही मेरी नियति है   ।
   

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