हे माँ धरा
कहाँ से लाती हो
इतना धैर्य
कैसे सह लेती हो
इतना जुल्म
इतना बोझ
इतना कूड़ा -कचरा
करते हैं हम मानव
अपनी माँ को
कितना गन्दा
फिर भी बदले में
देती हो तुम
मीठे फल ,अनाज
हरे भरे वृक्ष
उनकी छाँव
समेटे रहती हो
सदा सबको
अपने ममता के
आँचल में
फिर क्यों हम
तेरे सब बच्चे
करते इतना
जुल्म तुझ पर
काटते पेड़ों को
पर्वतों को
पर अब हमे
सम्भलना होगा
करनी होगी
तेरी हिफाज़त
प्रेम से
करें सब आदर जो तेरा
रखें सब तुझे
स्वच्छ ,सुंदर
कमसे कम
एक एक पेड़
लगाये सभी
करे जतन उनका
तभी बन पायेगी
माँ धरा स्वर्ग सी ।
Saturday, 23 April 2016
माँ धरा
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वाह शुभा जी । बहुत खूब ।
ReplyDeleteआभार राजेशजी ।
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteवाह! बहुत सुंदर और सार्थक!!!
ReplyDeleteआज फिर पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ शुभा जी । अतिउत्तम अभिव्यक्ति है । नमस्कार ।।
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