Saturday, 23 April 2016

माँ धरा

   हे माँ धरा
   कहाँ से लाती हो
   इतना धैर्य
   कैसे सह लेती हो
    इतना जुल्म
    इतना बोझ
    इतना कूड़ा -कचरा
    करते हैं हम मानव
    अपनी माँ को
    कितना गन्दा
  फिर भी बदले में
    देती हो तुम
    मीठे फल ,अनाज
     हरे भरे वृक्ष
     उनकी छाँव
    समेटे रहती हो
    सदा सबको
    अपने ममता के
   आँचल में
   फिर क्यों हम
    तेरे सब बच्चे
     करते इतना
    जुल्म तुझ पर
    काटते  पेड़ों को
    पर्वतों को
    पर अब हमे
    सम्भलना होगा
   करनी होगी
   तेरी हिफाज़त
    प्रेम से
    करें सब आदर जो तेरा
    रखें सब तुझे
     स्वच्छ ,सुंदर
      कमसे कम
    एक एक पेड़
     लगाये सभी
    करे जतन उनका
    तभी बन पायेगी
    माँ धरा स्वर्ग सी ।
   

5 comments:

  1. वाह शुभा जी । बहुत खूब ।

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  2. आभार राजेशजी ।

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  4. वाह! बहुत सुंदर और सार्थक!!!

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  5. आज फिर पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ शुभा जी । अतिउत्तम अभिव्यक्ति है । नमस्कार ।।

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