लेकिन मैं कहानी सुनते -सुनते कल्पना जरूर करती । चूहा जब भी उसके मित्रों के साथ खेलने जाता तो उसके सभी दोस्त उसे छेड़ते ...चूहा भाई सात पुँछडिया रे ...और बेचारा चूहा बहुत रोता एक दिन उसने अपनी माँ से कहा ,माँ ..माँ
एक पूँछ कटवा ल़ूँ ?
माँ भी बूटे के दुख से दुखी थी ,बोली जा बेटा कटवा ले ..अब दोस्त छःपूँछ कह कर चिढाने लगे और इस तरह उसने एक -एक करके ,इतना दर्द सहकर अपनी छः पूँछ कटवा ली ।
बचपन में समझ नहीं आती थी कहानी के द्वारा क्या कहा जा रहा है ,तब तो केवल काल्पनिक चूहा बनता और शायद उसका दर्द भी कुछ-कुछ समझ आता ।
असली मतलब तो जिंदगी के उतार -चढाव झेलकर ही समझ आया ...कुछ तो लोग कहेगे .....लोगों का काम है कहना ....।
और हम भी लोगो की परवाह करके अपनी जिंदगी खुलकर नहीं जीते ।हर बात में सोचते हैं लोग क्या कहेगें ।
जब एक उम्र बीतने के बाद यानि पचासी (50)..के बाद जब कोई नारी ,अपने पंख फडफडा कर उड़ने की कोशिश करती है ,अपने अधूरे सपनों को पूरा करना चाहती है तो 'लोग'कहते हैं ,देखो ..अब इस उम्र में पंख लग गए है।
अरे भाई ,पंख तो पहले से ही थे पर समेट रखा था उन्हें अपनी जिम्मेदारियों के लिहाफ में ।
और अब जब फुरसत के कुछ लम्हे मिले हैं तो क्यों ना फैलाए पंखों को ... , अपने लिए कुछ करने को । लोगों का क्या उनका तो काम ही है कुछ न कुछ कहने का । तू उड ...खुलकर ,जी ले कुछ लम्हे अपने लिए भी ....।
शुभा मेहता
29th July ,2021
सही विश्लेषण दी कुछ लोगों का स्वभाव ही होता है दूसरे की हर बात में दोष निकालना।
ReplyDeleteलोगों की परवाह करके अपनी खुशियों से समझौता करने से कोई लाभ नहीं।
सारगर्भित मतंव्य।
प्रणाम दी।
सादर।
बहुत; बहुत धन्यवाद प्रिय श्वेता ।
Deleteहर उम्र पंख फैलाने के लिए उचित होती है ...
ReplyDeleteउड़ जाना जरूरी है ... आवाजें अपने आप पीछे छूट जाती हैं ...
धन्यवाद दिगंबर जी ।
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार ३० जुलाई २०२१ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
बहुत-बहुत धन्यवाद श्वेता । जी ,जरूर ।
Deleteउड़ने की चाह हर किसी को होती है इसमें उम्र कोई बाधा नही डाल सकती। बहुत सुंदर अभिव्यक्ति, शुभा दी।
ReplyDeleteधन्यवाद ज्योति ।
Deleteहमारी जिम्मेदारी केवल अपने ज़मीर की होती है उसी की सुननी है उससे ही नज़र मिलानी है
ReplyDeleteबाकी कुछ कहने वालों की चिन्ता नहीं करनी है
धन्यवाद विभा जी ।
Deleteबहुत सुन्दर लिखा है आपने, इंसानी फ़ितरत होती है दूसरे के दोषों को इंगित करना परन्तुएँ विचारों को अनसुना कर आगे बढ़ना चाहिए। सुन्दर रचना।
ReplyDeleteधन्यवाद उर्मिला जी ।
Deleteसुन्दर अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteधन्यवाद सुशील जी ।
Deleteवैसे सारी उम्र यही सोचते कट जाती है कि लोग क्या कहेंगे ।
ReplyDeleteवैसे हमने कुम्हार ,कुम्हार का बेटा और गधे की कहानी पढ़ी थी । शायद सब ने ही पढ़ी हो ।
सटीक अभिव्यक्ति ।
धन्यवाद संगीता जी ।
Deleteसही कहा आपने, सारगर्भित रचना।
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद पम्मी जी ।
Deleteगहरे अर्थों को समेटती हुई कहानी!!!
ReplyDeleteधन्यवाद विश्वमोहन जी ।
Deleteसुंदर
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद ।
Deleteसात पूँछ वाले चूहे की कहानी के माध्यम से लोग क्या कहेंगे तक बहुत खूबसूरती से लिखा आपने..
ReplyDeleteऔर सही है लोग तो कहते ही रहेंगे उनका क्या... अपनी सुनकर अपने मन की करनी चाहिए
सुन्दर सृजन।
बहुत-बहुत धन्यवाद सुधा जी ।
Deleteलोगों के कहने पर ... बहुत ही बढ़िया कहानी
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद ।
Deleteबहुत बहुत रोचक
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आलोक जी ।
Deleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद ओंकार जी ।
ReplyDeleteतू उड ...खुलकर ,जी ले कुछ लम्हे अपने लिए भी ....। सुंदर सृजन।
ReplyDelete'सात पूँछवाले चूहे की कहानी' के माध्यम से आपने एक सार्थक संदेश देती लघुकथा पेश की है.
ReplyDeleteजब अपना दिल-ओ-दिमाग़ पर्याप्त हो तो समाज की टोका-टाकी की चिंता पेड़ के पीले पत्ते-सी होनी चाहिए. दरअसल समाज का बड़ा हिस्सा प्रोत्साहित करने के बजाय हतोत्साहित अधिक करता है जिसके पीछे अनेक कुंठाएँ और दुराग्रह निहित होते हैं.
आपकी इस मन की लघुउद्गार के बहाने मुझे भी प्रसंगवश मेरे पापा द्वारा कई बार बोली गयी ये लोक लघुकथा याद आ गयी कि किसी एक गाँव में सभी इंसान बिना नाक के थे। साँस लेने के लिए चेहरे पर केवल दो छिद्र थे। (गुलिवर और लिलिपुट की कहानी के समानन्तर)। एक दिन एक हम सामान्य इंसानों जैसा एक नाक वाला इंसान भटकता हुआ गलती से चला गया।
ReplyDeleteफिर क्या था, उस गाँव वालों ने उस नाक वाले को ज़बरन पकड़ के उसकी नाक को, एक फोड़ा बतला कर, उसे काट दिया।
बेचारा .. वो भी बिना नाक का हो गया .. अक़्सर मेरे पापा किसी यथोचित प्रसंगवश ये सुनाते थे।
यही है हमारा हर युग का, हर उम्र का समाज, वो अपने रंग में हमें ज़बरन रँगना चाहता है। वह अपनी नज़रों से अपनी बुरी रीति-रिवाजों को भी ज़बरन हम पर थोप कर अपने जैसा मायूस, मनहूस बनाना चाहता .. शायद ...
सुन्दर रचना
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति।
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