अरे ओ चित्रकार
कौन है तू ,कभी देखा नहीं
रहता है कहाँ तू ?
कैसे भरता है रंग इस जगत में
कहाँ से लाता है इतने ?
ये हरे भरे पर्वत ,ये नदियाँ ,ये झरनें
ये पेड़ पौधे फलों से लदे
हैं जो लाल,पीले ,नीले रंगों से सजे ।
क्या तू है वही जिसे ,हमनें है बैठाया
मंदिर ,मस्जिद ,चर्च और गुरुद्वारे में
तूने तो बांटे हैं सभी को
रंग एक जैसे
फिर क्यों कोई करता है
तेरे बनाये इस
सतरंगी जहाँ को मटमैला
भर के रंग हिंसा का
नफरत का
द्वेष का
अरे तू आता क्यों नहीं
बचाने अपनी सुंदर
सतरंगी दुनियाँ को ।
आपकी लिखी रचना सोमवार. 31 जनवरी 2022 को
ReplyDeleteपांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
संगीता स्वरूप
व्वाहहहहहह..
ReplyDeleteशानदार आख्यान
सादर..
वही तो है तो इस कलह-कोलाहल में भी रंगों और रसों को बचाए रखता है .
ReplyDeleteउसने तो सारी नियामतें दे दी हमें, अब हम ही संभाल नहीं पा रहे और उन्हें विनाश को मोड़ रहे हैं।
ReplyDeleteहृदय को द्रवित करता आह्वान विधाता से।
सुंदर सृजन।
फिर क्यों कोई करता है
ReplyDeleteतेरे बनाये इस
सतरंगी जहाँ को मटमैला
उसकी बनाई सृष्टि में नफरतों के रंग भरने वाले भी उसी की रचनाएं हैं
बहुत ही सुन्दर सृजन।
अति सुन्दर अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteउपहार देकर प्रकृति ने हमपर उपकार किए हैं उन्हें सँभालने की जिम्मेदारी हमारी है ,हम बच्चे अपने पिता की दी धरोहर को नष्ट कर रहे हैं अपने स्वार्थ में जिसका दंड मिलेगा पूरी सभ्यता को।
ReplyDeleteउसने तो हमें प्रेम रंग ही दिया था हमने ही नफ़रत फैलाया,जब जब नफ़रत के इस रंग को देख मन दुखी होता है तो ये सवाल कर उठता है, बहुत ही सुन्दर सृजन शुभा जी,सादर
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteतूने तो बांटे हैं सभी को
ReplyDeleteरंग एक जैसे
फिर क्यों कोई करता है
तेरे बनाये इस
सतरंगी जहाँ को मटमैला
भर के रंग हिंसा का
नफरत का
द्वेष का …बहुत सुन्दर!!