Saturday, 28 February 2015

चित्रकार

अरे ओ चित्रकार
       कौन है तू ,कभी देखा नहीं
       रहता है कहाँ तू ? 
      कैसे भरता है रंग इस जगत में
      कहाँ से लाता है इतने ?
    ये हरे भरे पर्वत ,ये नदियाँ ,ये झरनें
      ये पेड़ पौधे फलों से लदे
       हैं जो लाल,पीले ,नीले रंगों से सजे ।
       क्या तू है वही जिसे ,हमनें है बैठाया
          मंदिर ,मस्जिद ,चर्च और गुरुद्वारे में
         तूने तो बांटे हैं सभी को
              रंग एक जैसे
        फिर क्यों कोई करता है
            तेरे बनाये इस
       सतरंगी जहाँ को मटमैला
        भर के  रंग हिंसा का
                नफरत का
                 द्वेष का
           अरे तू आता क्यों नहीं
          बचाने अपनी सुंदर
          सतरंगी दुनियाँ को ।
               
               
    
  

     

10 comments:

  1. आपकी लिखी रचना सोमवार. 31 जनवरी 2022 को
    पांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    संगीता स्वरूप

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  2. व्वाहहहहहह..
    शानदार आख्यान
    सादर..

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  3. वही तो है तो इस कलह-कोलाहल में भी रंगों और रसों को बचाए रखता है .

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  4. उसने तो सारी नियामतें दे दी हमें, अब हम ही संभाल नहीं पा रहे और उन्हें विनाश को मोड़ रहे हैं।
    हृदय को द्रवित करता आह्वान विधाता से।
    सुंदर सृजन।

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  5. फिर क्यों कोई करता है
    तेरे बनाये इस
    सतरंगी जहाँ को मटमैला
    उसकी बनाई सृष्टि में नफरतों के रंग भरने वाले भी उसी की रचनाएं हैं
    बहुत ही सुन्दर सृजन।

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  6. अति सुन्दर अभिव्यक्ति।

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  7. उपहार देकर प्रकृति ने हमपर उपकार किए हैं उन्हें सँभालने की जिम्मेदारी हमारी है ,हम बच्चे अपने पिता की दी धरोहर को नष्ट कर रहे हैं अपने स्वार्थ में जिसका दंड मिलेगा पूरी सभ्यता को।

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  8. उसने तो हमें प्रेम रंग ही दिया था हमने ही नफ़रत फैलाया,जब जब नफ़रत के इस रंग को देख मन दुखी होता है तो ये सवाल कर उठता है, बहुत ही सुन्दर सृजन शुभा जी,सादर

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  9. बहुत सुंदर रचना

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  10. तूने तो बांटे हैं सभी को
    रंग एक जैसे
    फिर क्यों कोई करता है
    तेरे बनाये इस
    सतरंगी जहाँ को मटमैला
    भर के रंग हिंसा का
    नफरत का
    द्वेष का …बहुत सुन्दर!!

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