माँ , अभी तो हूँ मैं
छोटी सी , नन्ही सी
फिर भी नन्हे ये हाथ मेरे
कभी ढोते बोझा
और कभी होता
इन हाथों में मेरे
झाड़ू या पोंछा
करती हूँ दिनभर
बस यही सब
थकती तो हूँ मैं
पर मुझे कहाँ आराम
देखती हूँ जब
हमउम्र बच्चों को
खेलते ,-कूदते
मेरा भी
मन करता है
चाहे हूँ मैं
मजदूर की बेटी
पर मन तो है न
मेरे भी।पास
चाहता है वो भी
मैं भी खेलूँ -कूदूँ
हों मेरे पास भी
कॉपी -किताब
सुंदर सी पेंसिल
ले जिससे कोई
शब्द आकार
देखती हूँ मैं भी ये
सपना सलोना
दिलवा दो न
मुझे भी माँ ....
कॉपी -किताब
भेजो न मुझे भी
स्कूल तुम माँ
पढ़ना है मुझे भी
बनना है कुछ
नाम करना है
रोशन तेरा ।
Thursday, 3 March 2016
अभिलाषा
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कहाँ हैं, वे जो महिला दिवस की अौपचारिकता निभा कर फूले नहीं समाते !
ReplyDeleteस्वागत है आपका मेरे ब्लॉग पर । धन्यवाद । सब मात्र एक दिखावा होता है ।
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
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ReplyDeleteYou right straight from your heart....that's why it touches the reader so deeply.
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