Tuesday, 6 February 2018

नदी ....

मैं हूँ नदी .....
निकल कर पहाड़ों की गोद से ,
  आ पहुँचती धरा पर
    सबका जीवन
   निर्मल करने
      रवि किरणें जब
      मुझको छूती
     मैं चमक उठती रजत सी
      इठलाती ,बलखाती
    चंचल, चपल
    जीवन देनारी ।
    पर  हे मानव ....
   तू क्यों है
   इतना स्वार्थ मगन
    करता क्यों नहीं मेरा जतन
    उँडेल कर जमाने का करकट
    करता है क्यों मुझको मैला
    कहती हूँ तुझसे
    अब भी संभल जा
     नहीं तो तुझको
    कष्ट पडे़गा सहना
      कहीं ये तेरी करनी
     पड़ जाए तुझे न
    मँहगी ....
    संभल जा अभी भी ...
    ओ मानव संभल जा ....।
    
   शुभा मेहता
   7th Feb .2018

    

18 comments:

  1. Kavita ke madhyam se bahut khoobsurati se insan ko chetavani aur samjhane ka kaam kiya aaj ki jaroorat nadiyan jeewan deti hain aur unse chedkhani karo toh leel bhi deti hain saral sahaj shabdavali ja prayog samvaad ke liye behtareen hua hai tera yash ko aur khoob likhe yahi meri ishwar se prarthana hai khush rah bahena bahut bahut pyaar 😘😘😘😘😘😘💐💐💐💐💐💐

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  2. वाह्ह्ह....बहुत ख़ूब...सुंदर भाव से भरी लाज़वाब रचना👌

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद श्वेता ।

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  3. भावपुर और प्रभावी रचना
    बधाई

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय ज्योति जी।

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  4. मर्मस्पर्शी प्रस्तुति।

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  5. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक १२ फरवरी २०१८ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद प्रिय श्वेता ।

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    1. बहुत बहु धन्यवाद नीतू ।

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  7. शुभा जी,बेहद खूबसूरत भावों से सजी खूबसूरत रचना‎.

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद मीना जी ।

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  8. बहुत सुन्दर, भावपूर्ण रचना....
    वाह!!!

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद सुधा जी।

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  9. नदी के आक्रांत मन के प्रखर स्वर !!!! सराहनीय और सार्थक सृजन !!!!! आदरणीय शुभा जी सादर शुभकामनाएं |

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद रेनू जी ।

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  10. नदी के मन की बात शब्दों में उतार दी ...
    ये इंसान का दुर्भाग्य है जो जीवन दायी है उसे ही गंदा करता है उसका मोल नहीं समझता

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