खुला गगन था
बादल थे
मेघधनुष भी था
पानी था
कलकल बहता
बस नही था कोई
तो बस वो तुम थे
पर ,यादों की चादर थी
कुछ धुंधली ,कुछ उजली
चादर ओढ़ उनमें झाँकने की
कोशिश करती मैं थी
कह कर गए तो थे
लौटूंगा ....
बरसों बीते
व्यर्थ इंतजार
कहाँ छुपाऊँ
मन की वेदना ...
शायद ,इसीलिए
यादों की चादर से
ढाँप लेती हूँ खुद को ।
शुभा मेहता
25th April ,2019
Vedana prem aur virah teeno ka adbhut chitran aur bahut hi khubsurati se shabdon ka jaanj pehnaya bahut bdhiya bahena likhe jaa yun hi dherum dher pyaar 😘😘😘😘👏👏👏👏👏💐💐💐💐💐😊😊😊😊😊
ReplyDeleteप्रेम भरी विरह वेदना को बहुत ही सुंदर शब्दों में पिरोया हैं आपने, शुभा दी👌👌।
ReplyDeleteधन्यवाद ज्योति ।
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (27-04-2019) "परिवार का महत्व" (चर्चा अंक-3318) को पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
--अनीता सैनी
धन्यवाद प्रिय सखी अनीता जी ।
Deleteकह कर गए तो थे
ReplyDeleteलौटूंगा ....
बरसों बीते
व्यर्थ इंतजार
कहाँ छुपाऊँ
मन की वेदना ... बेहतरीन रचना सखी 👌
बहुत-बहुत धन्यवाद सखी ।
Deleteवाह! बहुत सुंदर शुभाजी।
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद विश्व मोहन जी ।
Deleteबहुत बहुत धन्यवाद विश्व मोहन जी ।
Deleteकहाँ छुपाऊँ
ReplyDeleteमन की वेदना ...
शायद ,इसीलिए
यादों की चादर से
ढाँप लेती हूँ खुद को ।...
बेहतरीन लेखन, भावपूर्ण । बहुत-बहुत शुभकामनाएँ आदरणीय शुभा जी।
बहुत-बहुत धन्यवाद पुरुषोत्तम जी ।
Deleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत-बहुत आभार ।
Deleteबहुत-बहुत धन्यवाद श्वेता । जरूर आऊँगी ।
ReplyDeleteप्रेम में विरह वेदना को झेलती हुई नायिका की सरल सहज अभिव्यक्ति। सुंदर रचना।
ReplyDeleteविकल मन को जैसे समेट लिया हो गहन अंतर वेदना तक बस स्वयं के अंदर।
ReplyDeleteबहुत बहुत हृदय स्पर्शी रचना शुभा जी।
बधाई।
बहुत-बहुत धन्यवाद कुसुम जी ।
Deleteबहुत ही भावपूर्ण सृजन प्रिय शुभा जी -- ये पंक्तियाँ तो विरह से सराबोर हैं जो इन्तजार में व्याकुल मन की दशा को सहजता से प्रकट करती हैं |
ReplyDeleteकह कर गए तो थे
लौटूंगा ....
बरसों बीते
व्यर्थ इंतजार
कहाँ छुपाऊँ
मन की वेदना ...
शायद ,इसीलिए
यादों की चादर से
ढाँप लेती हूँ खुद को
सादगी से कही गयी इस रचना के लिए सस्नेह बधाई और शुभकामनायें | गूगल प्लस के जाने के बाद मुश्किल से ही आपके ब्लॉग पर आ पाती हूँ | सस्नेह
बहुत-बहुत धन्यवाद प्रिय रेनू जी ।
Deleteशायद ,इसीलिए
ReplyDeleteयादों की चादर से
ढाँप लेती हूँ खुद को ।...
बेहतरीन लेखन खूबसूरत पंक्तियाँ हैं