Tuesday, 9 June 2015

लक्ष्य

       आशा की कश्ती में
          उमंगों की पतवार
            अरमानो  का नीर लेकर
            चला चल माँझी  चला चल ।
         तू चल पड़ लक्ष्य की ओर
           पहुँचना है गर किनारे
            तो बनके अर्जुन
            देख सिर्फ आँख चिड़िया की
            देखना , पलक भी ना झपकने पाये
            चाहे बहे अश्रुधार  ।
           मौज़े हों चाहे  कितनी भी तेज़
             या हो झंझावात
          ना रुक ,ना डर
           चला चल माँझी चला चल ।
            

1 comment:

  1. आपकी कविता में जो जोश और उम्मीद की लहर है, वो सीधा दिल में उतर जाती है। “चल चल माँझी चला चल” बार-बार पढ़ते ही जैसे अंदर से हिम्मत जाग उठती है। अर्जुन वाली पंक्ति तो कमाल की लगी जो ध्यान, दृढ़ता और लक्ष्य की एकदम सटीक मिसाल है। तूफ़ान, आँधी, मुश्किलें, सबको पार करने का हौसला आपकी कविता में महसूस होता है।

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