Tuesday 31 October 2017

आडंबर....

   खिड़की से देखती हूँ
    चंदा ,सूरज , तारे
   दूर -दूर तक गगन विशाल
    कितने सुंदर !!
    ऊँची -ऊँची अट्टालिकाएँ
   रंगी हुई ,खूबसूरत रंगों से
     दौड़ती कारें , बड़ी -बड़ी गाड़ियाँ
     एक दूसरे से ,रेस लगाते हुए ..
    सब बेजान हैं
    पर ,करते हैं आर्कषित
   अपनी चमक से 
  बाहरी चमक
   बाहरी हँसी
  सब आडंबर ....
   पर खिड़की के अंदर ....
   है जो मन की खिड़की
   वहाँ ..सब कुछ अलग सा
   रंगहीन ,उदास ..
    कुछ घावों के निशान
    कुछ अपनों के दिए
    कुछ परायों के ......
     इति...
 
   शुभा मेहता
   31oct ,2017
 

   
   

Saturday 28 October 2017

पहचान

कौन  हूँ मैं ?
आज उम्र के
इस मोड़ पर आकर भी
ढूँढ रही हूँ
अपनी पहचान
क्या है मेरा वजूद
क्या एक नाम ही
काफी नहीं ?
या फिर 
होना एक हिन्दुस्तानी
  बस इतना ही बहुत है
  मेरे लिए
एक गर्वित हिन्दुस्तानी
क्यों उलझ जाते हैं हम
  प्रांतवाद ,जातिवाद के
चक्कर मे...
इक इंसान होना काफी नह़ी
बस बना ली हैं
दीवारें..
मजहब की ,
भाषा की
दीवारें ही दीवारें
इन सबकी
भूलभुलैया में
खोती जा रही
इंसानियत कहीं
चलो फिर से
थोडी
ही सही
कोशिश करें , गिरादें
ये मानव निर्मित दीवारें
चलो चलें......।

    शुभा मेहता
    28th Oct ,2017