Tuesday 31 October 2017

आडंबर....

   खिड़की से देखती हूँ
    चंदा ,सूरज , तारे
   दूर -दूर तक गगन विशाल
    कितने सुंदर !!
    ऊँची -ऊँची अट्टालिकाएँ
   रंगी हुई ,खूबसूरत रंगों से
     दौड़ती कारें , बड़ी -बड़ी गाड़ियाँ
     एक दूसरे से ,रेस लगाते हुए ..
    सब बेजान हैं
    पर ,करते हैं आर्कषित
   अपनी चमक से 
  बाहरी चमक
   बाहरी हँसी
  सब आडंबर ....
   पर खिड़की के अंदर ....
   है जो मन की खिड़की
   वहाँ ..सब कुछ अलग सा
   रंगहीन ,उदास ..
    कुछ घावों के निशान
    कुछ अपनों के दिए
    कुछ परायों के ......
     इति...
 
   शुभा मेहता
   31oct ,2017
 

   
   

13 comments:

  1. सुन्दर अति सुन्दर रचना आज बाहरी दिखावा और आडम्बर का ही युग है कविता यथार्थ को दर्शाती है एवं बहुत प्रासंगिक है सहज शब्द विन्यास कहीं कोई क्लिष्टता नहीं सहज सुन्दर शब्दों के प्रयोग ने कविता को प्रभावशाली बनाया। अब लगा कि लेखनी का बम्बा फूटा।बहन तू बधाई की पात्र है और तेरी अनगिनत प्रतिभा का कायल रहा हूँ। बहुत-बहुत प्यार एवं आशीष।

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  2. अंतर की पीड़ा कई बार बाहर की असल चमक को भी आडम्बर मान लेती है ... इस पीड़ा को सहेज के आगे बढ़ना ही जीवन है ...
    भावपूर्ण सीधे बात कहती है रचना ...

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    1. धन्यवाद दिगंबर जी ,हौसला बढा़ने के लिए ।

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  3. वाह्ह्ह....शुभा जी,क्या लाज़वाब अभिव्यक्ति है।

    मन जब उदास हो तो कुछ भी नहीं भाता।
    सीली आँखों में ख्वाब कोई सूखा नहीं आता।

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद श्वेता जी ।

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  4. भावपूर्ण सुंदर रचना

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद पम्मी जी ।

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  5. सीधे दिल पर दस्तक दी है

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद संजय जी।

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