कोई खास काम नहीं ,
नौकरी भी पूरी हुई
अब कोई रुटीन नही
बस ,सन्नाटा -सा रहता है
सोचती हूँ ,कौन हूँ मैं
घर बनाया ,बगीचा बनाया
और खुद को चारदिवारी में खो दिया
साइकल से ,स्कूटर
स्कूटर से कार ......
तीव्रगति से दौडता जीवन
पर अब .............
धीरे-धीरे चलती हूँ
कहीं गिर न जाऊं ,डरती हूँ
शहर -शहर घूमी
अलग -अलग संस्कृतियों को देखा -जाना
पर अपनें आप से अनजान रही
आखिर मैं हूँ कौन
प्रकृति के साथ भी खिलवाड किया
जाने-अनजाने .....
पानी का भी भर -भर उपयोग (दुरुपयोग) किया
प्रकृति भी अब पूछ रही है
कौन है तू ...?
अब कुछ कुछ आ रहा है समझ
मै तुम हूँ ,और तुम मैं
दोनों को एक दूसरे को सम्हालना है
धरती को स्वर्ग बनाना है ।
शुभा मेहता
2nd Aug ,2025
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में रविवार 03 अगस्त 2025 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत -बहुत धन्यवाद सखी यशोदा जी
ReplyDeleteआपने जिस तरीके से “मैं कौन हूँ” वाला सवाल उठाया न, वो हर किसी के दिल में कहीं न कहीं छुपा होता है, बस कोई कह नहीं पाता। कार से साइकल तक का सफर जितना बाहर का है, उतना ही अंदर का भी है। मुझे सबसे ज़्यादा वो हिस्सा छू गया जहाँ आप कहती है, “शहर-शहर घूमी... पर अपने आप से अनजान रही।” कितनी बार ऐसा हुआ है कि हमने दुनिया देख ली, लेकिन खुद को नहीं देखा।
ReplyDeleteबहुत -बहुत धन्यवाद
Deleteवाह
ReplyDeleteबहुत -बहुत धन्यवाद सर ।
Deleteसमय की चाल ऐसी है ... धीरे धीरे खाली होना है ...
ReplyDeleteबहुत -बहुत धन्यवाद दिगंबर जी
Deleteबहुत खूब 🙏
ReplyDeleteबहुत -बहुत धन्यवाद
Deleteबहुत सटीक शुभा जी ! सेवानिवृत्ति के बाद अपनी पहचान क्या है ?...कौन हैं हम ?...
ReplyDeleteअब वक्त है खुद को पहचानने का...
बहुत सुन्दर सृजन ।
बहुत -बहुत धन्यवाद सुधा जी
Deleteसार्थक प्रश्न और सुंदर उत्तर
ReplyDeleteबहुत -बहुत धन्यवाद अनीता जी
Deleteसुंदर प्रस्तुति।
ReplyDeleteबहुत -बहुत धन्यवाद
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