Wednesday 28 July 2021

लोग ..

बचपन में माँ एक कहानी सुनाया करती थी ,सात पूँछ वाले चूहे की ....एक चूहा था उसके सात पूँछ थी ,अब भला सात पूँछवाला चूहा किसने देखा (शायद अपवाद स्वरूप कहीं हो भी ) 
लेकिन मैं कहानी सुनते -सुनते कल्पना जरूर करती । चूहा जब भी उसके मित्रों के साथ खेलने जाता तो उसके सभी दोस्त उसे छेड़ते ...चूहा भाई सात पुँछडिया रे ...और बेचारा चूहा बहुत रोता एक दिन उसने अपनी माँ से कहा ,माँ ..माँ

एक पूँछ कटवा ल़ूँ ?
माँ भी बूटे के दुख से दुखी थी ,बोली जा बेटा कटवा ले ..अब दोस्त छःपूँछ कह कर चिढाने लगे और इस तरह उसने एक -एक करके ,इतना दर्द सहकर अपनी छः पूँछ कटवा ली । 
बचपन में समझ नहीं आती थी कहानी के द्वारा क्या कहा जा रहा है ,तब तो केवल काल्पनिक चूहा बनता और शायद उसका दर्द भी कुछ-कुछ समझ आता ।
असली मतलब तो जिंदगी के उतार -चढाव झेलकर ही समझ आया ...कुछ तो लोग कहेगे .....लोगों का काम है कहना ....।
और हम भी लोगो की परवाह करके अपनी जिंदगी खुलकर नहीं जीते ।हर बात में सोचते हैं लोग क्या कहेगें ।

जब एक उम्र बीतने के बाद यानि पचासी (50)..के बाद जब कोई नारी ,अपने पंख फडफडा कर उड़ने की कोशिश करती है ,अपने अधूरे सपनों को पूरा करना चाहती है तो 'लोग'कहते हैं ,देखो ..अब इस उम्र में पंख लग गए है। 
अरे भाई ,पंख तो पहले से ही थे पर समेट रखा था उन्हें अपनी जिम्मेदारियों के लिहाफ में ।
और अब जब फुरसत के कुछ लम्हे मिले हैं तो क्यों ना फैलाए पंखों को ...  , अपने लिए कुछ करने को । लोगों का क्या उनका तो काम ही है कुछ न कुछ कहने का । तू उड ...खुलकर ,जी ले कुछ लम्हे अपने लिए भी ....।

शुभा मेहता 
29th July ,2021
  

35 comments:

  1. सही विश्लेषण दी कुछ लोगों का स्वभाव ही होता है दूसरे की हर बात में दोष निकालना।
    लोगों की परवाह करके अपनी खुशियों से समझौता करने से कोई लाभ नहीं।
    सारगर्भित मतंव्य।

    प्रणाम दी।
    सादर।

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत; बहुत धन्यवाद प्रिय श्वेता ।

      Delete
  2. हर उम्र पंख फैलाने के लिए उचित होती है ...
    उड़ जाना जरूरी है ... आवाजें अपने आप पीछे छूट जाती हैं ...

    ReplyDelete
    Replies
    1. धन्यवाद दिगंबर जी ।

      Delete
  3. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार ३० जुलाई २०२१ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत-बहुत धन्यवाद श्वेता । जी ,जरूर ।

      Delete
  4. उड़ने की चाह हर किसी को होती है इसमें उम्र कोई बाधा नही डाल सकती। बहुत सुंदर अभिव्यक्ति, शुभा दी।

    ReplyDelete
    Replies
    1. धन्यवाद ज्योति ।

      Delete
  5. हमारी जिम्मेदारी केवल अपने ज़मीर की होती है उसी की सुननी है उससे ही नज़र मिलानी है

    बाकी कुछ कहने वालों की चिन्ता नहीं करनी है

    ReplyDelete
    Replies
    1. धन्यवाद विभा जी ।

      Delete
  6. बहुत सुन्दर लिखा है आपने, इंसानी फ़ितरत होती है दूसरे के दोषों को इंगित करना परन्तुएँ विचारों को अनसुना कर आगे बढ़ना चाहिए। सुन्दर रचना।

    ReplyDelete
    Replies
    1. धन्यवाद उर्मिला जी ।

      Delete
  7. सुन्दर अभिव्यक्ति।

    ReplyDelete
    Replies
    1. धन्यवाद सुशील जी ।

      Delete
  8. वैसे सारी उम्र यही सोचते कट जाती है कि लोग क्या कहेंगे ।
    वैसे हमने कुम्हार ,कुम्हार का बेटा और गधे की कहानी पढ़ी थी । शायद सब ने ही पढ़ी हो ।
    सटीक अभिव्यक्ति ।

    ReplyDelete
    Replies
    1. धन्यवाद संगीता जी ।

      Delete
  9. सही कहा आपने, सारगर्भित रचना।

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत-बहुत धन्यवाद पम्मी जी ।

      Delete
  10. गहरे अर्थों को समेटती हुई कहानी!!!

    ReplyDelete
    Replies
    1. धन्यवाद विश्वमोहन जी ।

      Delete
  11. Replies
    1. बहुत-बहुत धन्यवाद ।

      Delete
  12. सात पूँछ वाले चूहे की कहानी के माध्यम से लोग क्या कहेंगे तक बहुत खूबसूरती से लिखा आपने..
    और सही है लोग तो कहते ही रहेंगे उनका क्या... अपनी सुनकर अपने मन की करनी चाहिए
    सुन्दर सृजन।

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत-बहुत धन्यवाद सुधा जी ।

      Delete
  13. लोगों के कहने पर ... बहुत ही बढ़िया कहानी

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत-बहुत धन्यवाद ।

      Delete
  14. Replies
    1. बहुत-बहुत धन्यवाद आलोक जी ।

      Delete
  15. बहुत सुन्दर

    ReplyDelete
  16. बहुत-बहुत धन्यवाद ओंकार जी ।

    ReplyDelete
  17. तू उड ...खुलकर ,जी ले कुछ लम्हे अपने लिए भी ....। सुंदर सृजन।

    ReplyDelete
  18. 'सात पूँछवाले चूहे की कहानी' के माध्यम से आपने एक सार्थक संदेश देती लघुकथा पेश की है.
    जब अपना दिल-ओ-दिमाग़ पर्याप्त हो तो समाज की टोका-टाकी की चिंता पेड़ के पीले पत्ते-सी होनी चाहिए. दरअसल समाज का बड़ा हिस्सा प्रोत्साहित करने के बजाय हतोत्साहित अधिक करता है जिसके पीछे अनेक कुंठाएँ और दुराग्रह निहित होते हैं.

    ReplyDelete
  19. आपकी इस मन की लघुउद्गार के बहाने मुझे भी प्रसंगवश मेरे पापा द्वारा कई बार बोली गयी ये लोक लघुकथा याद आ गयी कि किसी एक गाँव में सभी इंसान बिना नाक के थे। साँस लेने के लिए चेहरे पर केवल दो छिद्र थे। (गुलिवर और लिलिपुट की कहानी के समानन्तर)। एक दिन एक हम सामान्य इंसानों जैसा एक नाक वाला इंसान भटकता हुआ गलती से चला गया।
    फिर क्या था, उस गाँव वालों ने उस नाक वाले को ज़बरन पकड़ के उसकी नाक को, एक फोड़ा बतला कर, उसे काट दिया।
    बेचारा .. वो भी बिना नाक का हो गया .. अक़्सर मेरे पापा किसी यथोचित प्रसंगवश ये सुनाते थे।
    यही है हमारा हर युग का, हर उम्र का समाज, वो अपने रंग में हमें ज़बरन रँगना चाहता है। वह अपनी नज़रों से अपनी बुरी रीति-रिवाजों को भी ज़बरन हम पर थोप कर अपने जैसा मायूस, मनहूस बनाना चाहता .. शायद ...

    ReplyDelete
  20. सुंदर प्रस्तुति।

    ReplyDelete