Tuesday, 20 March 2018

डर..

  इस शहर से कुछ दूर
  इक बस्ती है ..
   बसते है वहाँ भी
   कुछ इंसान
   घरों के नाम पर हैं
   कुछ टूटे-फूटे
  टाट के पैबन्द लगे दरवाजे़
  टीन की दीवारें
   गरमी मेंं झुलसते तन
    ठंड में ठिठुरते
   और बारिश में तो
   न जाने कितनी बार नहाते
   चिथड़ों मेंं लिपटे छोटे छोटे बच्चे
   सुबह खाया तो शाम का ठिकाना नहीं
   पर शायद डर नहीं कोई मन मेंं
   कुछ चोरी हो जाने का
    या फिर अपमानित होने का
    हार जानें का या कुछ खो लेने का
     दिखावे का या मान सम्मान का
       रोज अपमानित होने की आदत जो पडी हुई है
      अपने ही जैसे इंसानों से
       न आँधी का डर न तूफान का ,
        उड गई जो टीन की दीवारें
         सो लेगें कुछ रोज
         खुले  आसमाँ के तले
          जोड लेगें फिर से
         लगाएगे पैबंद नए.....

  .शुभा मेहता
    11th April 2018
       

         
          
       
       
   
  

   
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14 comments:

  1. बहुत अच्छी मर्मस्पर्शी रचना

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद कविता जी ।

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  2. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 16 अप्रैल 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय दिग्विजय जी ,मेरी रचना को साझा करनें के लिए ।

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  3. क्या बात है दी..बहुत सुंदर और सही..अभिव्यक्ति..👌

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद श्वेता ।

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  4. वाह लाजवाब सुंदर रचना

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद ।

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  5. बहुत खूबसूरत .... बहुत खूब

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद नीतू जी ।

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  6. मर्म को छूते हुए भाव ...
    जो न डरें किसी से ... मन में भाव लिए रहें ... आगे बढ़ने का भाव ..।
    कहाँ डरते हैं ऐसे लोग ।..

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद दिगंबर जी ।

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  7. बहुत सुन्दर...

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद सुधा जी ।

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