Monday 22 December 2014

तितलियाँ

खुले पैर बागीचे में दौडना ,
       तितलियों के पीछे,
     उन्हें पकड़ना  ,पर तोड़ देना
   कभी सोचा न था ,क्या गुजरेगी उन पर ।
     आज भी याद है माँ की वो बात ,
   " क्यों पकड़ती हो इन निरीह तितलियों को ,
     काश ,होती ज़ुबाँ इनके भी ,
      बयाँ कर सकती वो दास्ताँ अपनी " ।
       हुआ अब ये अहसास ,
     जब देखती हूँ, सुनती हूँ ,
      न जाने कितनी मासूम तितलियों को,
      पकड़े जाते हुए ,कुचले जाते हुए  ,
     दिल भर जाता है ,रोने को आता है ,
      मन करता है चीखने को ,
    कोशिश करती हूँ ,गला रुंध जाता है ।
      पर अब हिम्मत जुटानी होगी ,
      आवाज उठानी होगी ,
     चलना होगा मिल कर साथ ,
    ताकि,कोई तितली न खोए ,फिर रंगो को ।
       कितने रंग भरती हें ,जीवन में ये  ,
      उड़ती हुई ही अच्छी लगती है ये ।

    

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