अरे ,मैं हूँ एक चटका हुआ कप
पड़ा हूँ एक कोने मैं
रखा जाता है मुझमे कभी
बचा हुआ आटा या तेल
मुझे याद है अभी भी वो दिन
जब आया था इस घर में
मेरी मालकिन रोज चमकाती मुझे
शान से मेरी खूबसूरती बयां करती
और मैं ,गर्व से फूला न समाता ।
आज आलम है कुछ और
मेरे बाकी के साथी मुझे चिढ़ाते हैं
और आज तो हद हो गई
किसी ने कहा -अरे ये टूटा कप
क्यों रखा है इसे
बड़ा अपशगुन होता है
और फिर,फ़ेंक दिया गया मुझे
कचरापेटी में
तब से पड़ा हुआ हूँ इस गंदे ढेर पर
बस देखा करता हूँ
आते जाते लोगों को
ना जाने कब कोई आएगा
मुझे चूर-चूर कर जायेगा
शायद यही मेरी नियति है ।
Saturday, 9 May 2015
जीवन संध्या
Friday, 1 May 2015
माँ
ममता की छाँव
जीवन की नाव
स्नेह की मूरत
प्यारी सी सूरत
सिखाती है बुनना सपनों को वो
लगने ना देती कभी उनमें गांठ
उससे ही सीखा है मैंने
जीवन का पाठ ।
माँ है वो मेरी
माँ..... शब्द ही ऐसा है
सुनते ही जैसे
कानों में मिसरी सी घुल जाती है
एक अनोखी सी रचना है सृष्टि की
बहता है दिल में जिसके
प्रेम का अथाह सागर
लगाती हूँ जिसमे डुबकियाँ
गर हो कभी कोई गलती
देती है मीठी सी झिड़की
छुपा लेती पल्लू में
आती जब कोई मुझ पर आंच ।
शुभा मेहता
8th May 2021
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