खिड़की से देखती हूँ
चंदा ,सूरज , तारे
दूर -दूर तक गगन विशाल
कितने सुंदर !!
ऊँची -ऊँची अट्टालिकाएँ
रंगी हुई ,खूबसूरत रंगों से
दौड़ती कारें , बड़ी -बड़ी गाड़ियाँ
एक दूसरे से ,रेस लगाते हुए ..
सब बेजान हैं
पर ,करते हैं आर्कषित
अपनी चमक से
बाहरी चमक
बाहरी हँसी
सब आडंबर ....
पर खिड़की के अंदर ....
है जो मन की खिड़की
वहाँ ..सब कुछ अलग सा
रंगहीन ,उदास ..
कुछ घावों के निशान
कुछ अपनों के दिए
कुछ परायों के ......
इति...
शुभा मेहता
31oct ,2017