आओ मिल करें सब
स्वागत नववर्ष का
मिल गले एक दूजे से
करले दूर गिले -शिकवे
ख्वाहिशें जो रह गई
अधूरी हैं ..
आओ सजा लें
फिर से मन में
मंजिल को पाना है
हौसला बुलंद करें
आओ ....
ज़िन्दगी की थाली को
प्रेम से सजाएं
भर दें उसमे स्वाद सभी
खट्टे , मीठे , चरपरे
आओ मिल .....
Tuesday, 29 December 2015
स्वागतम्
Tuesday, 1 December 2015
ठहाके
सब कहते हैं , मैंने भी पढ़ा है
हँसना अच्छा है सेहत के लिए
अब सवाल ये है कि
हँसू तो किस बात पर
किसके साथ या किस पर
या अकेले ही कहकहे लगाऊँ
लोग समझेंगे पगला गई है
पहले जब देखती थी मैँ
बगीचों में लोगों को
झूठे कहकहे लगाते
सोचती क्यों ये
झूठे कहकहे लगाते हैं
क्या सच में ऐसा कुछ नहीं इनके पास
जो दिल से ठहाके लगा सके
पर महसूस होता है आज
झूठे ही सही , ठहाके तो हैं
हँसना अच्छा है न सेहत के लिए
अब तो ठान लिया है मैंने भी
झूठे ही सही ठहाके लगाऊँगी
अकेले-अकेले मुस्कुराऊंगी
माता , पिता ,बंधु , भ्राता
सभी स्वयं बन जाऊँगी
क्योंकि ........हँसना.......
अच्छा है सेहत के लिए ।
Monday, 30 November 2015
ठूँठ
हाँ ..... ठूँठ हूँ मैं
आते-जाते सभी लोग
लगता है जैसे चिढ़ाते हुए निकल जाते मुझे
भेजते लानत मुझ पर
कहते - कैसा ठूँठ सा खड़ा है यहाँ
इसके रहते इस जगह का सौंदर्य
जैसे ख़त्म सा हो गया है
और मैं उनकी बातों पर चिड़चिड़ा उठता
मन ही मन ,पर पूछ नहीं पाता
कि मुझे ठूँठ बनाया किसने
आँसू भी सूख चुके थे अब तक
ठूँठ जो हूँ.....
याद है मुझे अभी भी
जब मैं बीज था
कुछ बच्चे मुट्ठी में लेकर
लाये थे मुझे उगाने
रोज करते थे मेरा जतन
धीरे -धीरे अंकुर फूटे
बच्चे कितने खुश थे
नाच रहे थे ताली बजा -बजा कर
फिर धीरे -धीरे बन गया मैं एक विशाल वृक्ष
छाया में मेरी खेला करते बच्चे दिनभर
कितने ही पक्षियों का बसेरा था
मेरी शाखाओं में
कितना खुश था मैं
फिर अचनक एक दिन ..
ठाक... एक जोर का प्रहार
अपनी पीड़ा छुपा के देखने लगा इधय -उधर
मैंने सुना लोग कह रहे थे
अरे ये पेड़ तो है अब बेकार
चलो काट डालो इसे
मैं अवाक् सा रह गया
मैँने तो खुशियाँ ही बांटी
अपना सब कुछ तो दे दिया
फिर सोचा अरे ये तो इंसान है
अपनों को ही नहीं छोड़ता
फिर मैं तो पेड़ हूँ
मेरी क्या बिसात ।
Sunday, 8 November 2015
पिंजरे की मैना
पिंजरे की मैना ये ,
किसे सुनाये दास्ताँ दिल की
कितनी खुश थी जंगल में वो
दिन भर चहकती रहती थी
इस डाल से उस डाल पर
इस टहनी से उस टहनी
जहाँ चाहे उड़ जाती थी
कच्चे -पक्के कैसे भी फल
तोड़ तोड़ खा लेती थी
कितना अच्छा जीवन था वो
आज़ादी से भरा हुआ
चलती थी मनमर्जियाँ
थी साथ कितनी सखियाँ -सहेलियाँ
अब इस सोने के पिंजरें में
घुटता है दम
नहीं चाहिए ये स्वादिष्ट व्यंजन
बस कोई लौटा दे मुझको
फिर से मेरी आज़ादी ।
Tuesday, 20 October 2015
वक़्त
ये तो ववत -वक़्त की बात है
कभी मिलता है तो कभी मिलाता है
कभी खामोश सा बैठाता है
कभी कहकहे लगवाता है
तो कभी अनायास रुलाता है
कभी उलझे रिश्तों को सुलझाता है
तो कभी खुद ही को खुद से लड़ाता है
और ,गुजरते -गुजरते
दे जाता है ज़बीं पे लकीरें कुछ
साथ में बहुत कुछ सिखा भी जाता है
अच्छा ,बुरा बस गुज़र ही जाता है ।
Friday, 2 October 2015
जीवन
जीवन , निरंतर गतिशील
जैसे बहता झरना
वक़्त गुजरता है
पंख लगाकर
रुकता नहीँ किसी के रोके
ये गुजरता वक़्त
देता नहीँ दिखाई
पर , दिखा बहुत कुछ देता है
कुछ चाहा सा,कुछ अनचाहा
करा बहुत कुछ देता है
वो बचपन के प्यारे दिन
खेल कूद गुजारे थे जो
न जाने कब अतीत बन जाते हैं
बस रह जाती है यादें
कुछ खट्टी सी कुछ मीठी सी ।
कुछ धुंधली सी ,कुछ उजली सी ।
जिन्हें याद कर के कभी मुस्कुराते है
कभी गुनगुनाते है
और ये यादें कभी डबडबा देती है आँखों को
यही तो जीवन है
बहता झरना....
Thursday, 10 September 2015
संस्मरण - मेरी सहेली
बहुत साल पुरानी बात है तब मैं कोई 9 -10 साल की रही होंगी ।मेरी एक सहेली थी जो हमारे घर के पीछे ही रहती थी । शाला से आकर अपना काम निपटा कर मैंअक्सर उसके पास चली जाती थी ।उसका बात करने का जो तरीका था वो मुझे बहुत अच्छा लगता था वो बोलती थी और मैं बस सुनती रहती । किसी भी छोटी सी बात का वर्णन वो ऐसे करती जैसे कितना बड़ा काम किया हो ।
जब हम छोटे होते है तो हमे घर में कोई भी छोटे -मोटे काम करने को दिए जाते है ताकि हम आगे जाकर जिम्मेदार बन सकें ।जैसे मुझे चाय बनाने का काम मिला हुआ था वैसे ही सीता यानि मेरी सहेली को भगवान् की दिया बत्ती का काम उसकी माँ ने दे रखा था ।
एक दिन जब शाम को मैं उसके पास पहुँची तो वो बोली आज तो बड़ी थक गई हूँ ।मैंनेपूछा क्या हुआ ? तो वो बोली अरे क्या बताऊँ स्कूल से आई तो देखा भगवान का दीपक अभी तक किसी ने साफ़ नहीं किया था ।जल्दी -जल्दी साफ़ किया ,रूई निकाली ,बत्ती बनाई अब देखा तो घी जमा हुआ था ,रसोई में जाकर देखा तो चूल्हा भी बुझ चुका था (उन दिनों चूल्हे या अंगीठी पर ही खाना बनाया जाता था ,गैस स्टोव का प्रचलन कम ही था ) अब क्या करती धूप भी नही थी कि उसमे ही घी पिघलाती । पड़ोस में गई वहाँ घी पिघलाया ,दिए में बत्ती डाली ,माचिस में से तीली निकाली ,जलाई तब कही जाकर दिया बत्ती हुई बाप रे कितना थक गई ।
मैं भी उसकी बातों का मज़ा ले रही थी।
बड़ी प्यारी थी वो ।
Monday, 7 September 2015
संज्ञा
जी हाँ ,संज्ञा हूँ मैं
व्यक्ति या वस्तु ?
कभी -कभी ये बात सोच में डाल देती है
रूप है,रंग है ,आकार भी है
दिल भी,दिमाग भी
पर लगता है जैसे वस्तु ही हूँ मैं
जिसे,जहाँ चाहे रख दो
मन हो उठा लो
या शो केस में सजा लो
एक धड़कता दिल तो है सीने में
धड़कन किसी को सुनाई न देती
इच्छाएँ ,आशाएँ ,उम्मीदें भी हैं
जो किसी को दिखाई न देती
अब तो आलम ये है कि
खुद ही भ्रमित हूँ
क्या हूँ मैं
निर्जीव या सजीव ?
बस संज्ञा हूँ मैं ।
Wednesday, 2 September 2015
दूसरा पहलू
देखा पलट के पीछे की ओर
था नज़ारा वहाँ कुछ और
होठों पर थी मुस्कान जैसे ओढ़ी हुई
उस खिलखिलाहट के पीछे
छुपा दर्द भी देखा था मैंने
हक़ीकत यही थी
न हँसना न रोना
न प्यार ,न उसका एहसास
कहने को तो सभी थे अपने
फिर भी पाया अकेला स्वयं को
सब कुछ था फिर भी
दिल का एक कोना था उदास
न थी जिसमे कोई जीने की आस
ये दिल का कोना न देख ले कोई
इसलिए सदा मुस्कुराना है
खिलखिलाना है
इसे सजाना है ।
Thursday, 6 August 2015
बंधन
रक्षा का बंधन
बंधन अनोखा
शहद में भीगा
मीठा मीठा
रसीले आम सा
जिसमें भरा है जीवन रस ।
कितने सुहाने थे
बचपन के वो पल
गुजारे थे जो हमने
साथ साथ
छीना झपटी ,मारा मारी
खेले कूदे साथ साथ
भाई सदा ही आगे चलता
और बहन की रक्षा करता
जब आये उस पर कोई विपदा
हाथ सदा माथे पर रखता ।
भाई -बहिन का स्नेह निराला
कितना सच्चा ,कितना प्यारा
Monday, 27 July 2015
पिछले दिनों
पिछले दिनों मैंने देखी फ़िल्म बजरंगी भाई जान ।
जिसे निर्देशित किया कबीर खान ने ।
फ़िल्म के मुख्य कलाकार हैं सलमान खान ,करीना कपूर खान ,नन्ही बाल कलाकार हर्षाली नवाजुद्दीन सिद्दीकी और मेहमान कलाकार के रूप में हैं ओम पुरी ।
फ़िल्म की शुरुआत होती है बर्फीली पहाड़ियों और चिनार के पेड़ों के दृश्य से । और साथ ही भारत पाकिस्तान का क्रिकेट मैच ।
यह एक हनुमान भक्त पवन की कहानी है जो एक पाकिस्तानी बच्ची को उसके परिवार से मिलाने केलिए जान पर खेल जाता है। सलमान को इस प्रकार के रोल में देख के अच्छा लगा ।उन्होंने इस फ़िल्म में अपनी अभिनय प्रतिभा। का परिचय दिया है । बाल कलाकार हर्षाली ने तो सबका मन मोह लिया । हालाँकि उसका कोई संवाद नहीं था केवल आँखों से उसने अपनी अभिनय प्रतिभा का परिचय दिया है । नवाजुद्दीन लाजवाब रहे। करीना बहुत खूबसूरत लगी है। फ़िल्म अंत तक दर्शकों को बाँधे रखती है ।
संगीत प्रीतम जी का है । तू जो मिला गीत अच्छा बन पड़ा है ।
फ़िल्म के कहानीकार के अनुसार ये अमन की आशा की और एक कदम है । दोनों देशों के संबंधों को सुधरने का प्रयास है। फ़िल्म दोनों देशों में साथ रिलीज़ हुई और सराही गई ।
अब सवाल ये है के क्या वाकई में ऎसे प्रयत्नों से अमन की आशा पूरी होगी ।
Saturday, 25 July 2015
पिछले दिनों
पिछले दिनों मेरी एक सखी ने मुझे तीन पुस्तकें पढ़ने को दी क्योंकि हम दोनों ही साहित्य प्रेमी हैं अतः पुस्तकों का आदान प्रदान चलता रहता है ।मैंने सबसे पहले पढ़ने को चुनी जयशंकर प्रसाद जी की अनमोल कृति "तितली"। वो इसलिए की पाठक को सबसे पहले आकर्षित करता है पुस्तक का शीर्षक ।
पुस्तक की शुरुआत इन संवादों से होती है - "क्यों बेटी !मधुआ आज कितने पैसे लाया ? नौ आने बापू ! और कुछ नहीं ? पांच सेर आटा भी दे गया है ।
वाह रे समय --कह के बुड्ढा एक बार चित्त होकर साँस लेने लगा ।
कैसा समय बापू ? चिथड़ों में लिपटा हुआ लंबा चौड़ा अस्थिर पंजर झनझना उठा । खांस कर उसने कहा _जिस अकाल का स्मरण कर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं, जिस पिशाच की अग्नि क्रीड़ा में खेलती हुई मैंने तुझे पाया था ।
बज्जो मटकी में डेढ़ पाव दूध चार कंडों में गरम कर रही थी ।उफनते दूध को उतारके उसने कुतूहल से पुछा _बापू ! उस अकाल में तुमने मुझे पाया था । लो दूध पीकर मुझे पूरी कथा सुनाओ । बापू बोले बस मैं तेरा बाप तू मेरी बेटी ।
मधुआ चुपचाप आकर झोंपड़ी के कोने में खड़ा हो गया।
बज्जो यानि तितली ,मधुआ यानि मधुबन । इस उपन्यास के नायक और नायिका ।
दूसरी और इंद्रदेव धामपुर के युवा जमींदार हैँ ।पिता को राजा की उपाधि मिली हुई । लंदन में बैरिस्टरी क़े दौरान उनकी मुलाकात शैला से होती है जो उन्हें भीख मांगती हुई मिलती है ।दयावश वो उसे अपने साथ ले आते है जो बाद में उनके साथ भारत आ जाती है । उनकी माता श्यामदुलारी है ,और बहिन माधुरी जो घर की प्रबंधकर्ता है । जरा चिड़चिड़े स्वभाव की है ।उसका पति उसकी खोज खबर नहीं लेता बस ससुराल के पैसो से ऐश करता है ।
नायक नायिका अब युवा हो चले हैँ। बाबा दोनों का ब्याह करना चाहते हैं । इसलिए मधुबन आत्मनिर्भर बनना चाहता है ।इसमें शैला उसकी मदद करती है ।दोनों की शादी होती है ।
इस बीच कई घटनाये घटती हैं । और फिर पंडित दीनानाथ की बेटी की शादी में ऐसी घटना घटती है जो मधुबन का जीवन ही बदल देती हैं । अचानक हाथी बेकाबू हो जाते है मधुबन नाचने वाली मैना को बचाता है ।समाज वाले उसपर उँगलियाँ उठाते है । वो भी मैना के मोह में पड़ जाता है जिसका बाद मैं उसे पछतावा होता है।
उधर मंदिर के महंत मदद मांगने आई राजो के साथ बदसलूकी करने का प्रयास करते हैं तो तैश मेंआकर वह मंदिर क़े महंत का गला घोंट देता है और पैसे लेकर भाग जाता है। मैना के घर छिपता है ।
वहां से निकल कर इधर उधर भागता है अंत मैं उसे बारह वर्ष की जेल होती है । जेल का जीवन बिताते हुए मधुबन को कितने ही बरस हो जाते हैं । एक कुत्सित चित्र उसके मानस पटल पर कभी कभी स्वयं उपस्थित हो जाता वह मलिन चित्र होता था मैना का । उसका स्मरण होते ही उसकी मुट्ठियाँ बन्ध जाती थी । सोचता एक बार यदि उसे कोई शिक्षा दे सकता । आज उसके मन में बड़ी करुणा थी ।वो अपने अपराध पर आज स्वयं विचार रहा था _"यदि मैना के प्रति मेरे मन में थोडा भी स्निग्ध भाव न होता तो क्या घटना की धारा ऐसे ही चल सकती थी ।यही तो मेरा एक अपराध है"। वो सोचता है कि क्या इतना सा विचलन भी मानवता का ढोंग करने वाला निर्मम संसार सहन नही कर सकता ।
" मेरे सामने कैसे उच्च आदर्श थे कैसे उज्जवल भविष्य की कल्पना का चित्र मैँ खींचता था सब सपना हो गया "।उसकी आँखों से पश्चाताप के आँसू बहने लगते । कभी जब तितली की याद आती तो मन में आशा का संचार होता । कभी ग्लानि कभी विकार के भाव ।सोचता क्या तितली मुझे पहले सा स्नेह करेगी? उसे अपने आप से घृणा होने लगती है । सोचता है अगर मैंने उसी का स्मरण किया होता तो आज ये दिन न देखना पड़ता । तभी जेल कर्मचारी उसे खबर देते है के अच्छे चाल चलन की वजह से उसे जल्दी रिहा किया जा रहा है । अब उसके सामने प्रश्न था कि कहाँ जाये।उसके पास स्वतंत्र रूप से अपना पथ निर्धारित करने का कोई साधन नही था । तभी उसे एक पुराना साथी ननी मिलता है वह उसके साथ मेले में जाता।है। उसके साथी ने साबुन की दुकान लगाई थी वहां इसलिए वो मधुबन को मदद के लिए ले गया था ।और वहां उसने पुनः मैना को देखा और उसकेशरीर में जैसे चिंगारियाँ छूटने लगीं ।बदले की भावना मन मे जागी । मन में भयानक द्वन्द चल रहा है ।
अचानक जोरदार आवाजे सुनाई देती हैं पुनः हाथियों का हमला ,इस बार मधुबन अविचल बैठा रहा । पता लगा के बीसोँ मनुष्य कुचल गए हैं । तभी मधुबन ने किसी को कहते सुना मैना,पुजारी सभी कुचले गए मधुबन स्तब्ध खड़ा है ।
उधर तितली पुत्र को जन्म देती है लोग उसे संदेह की निगाह से देखते है । वह समाज की परवाह किये बिना उसका अच्छा लालन पालन करती है । वह कन्या पाठशाला चलाती है । आत्मनिर्भर एवम् स्वावलंबी है ।
उधर शैला के प्रयत्नों से धामपुर गांव की उन्नति हो रही है।इन कई सालों में यह छोटा सा कृषि प्रधान नगर बन गया था ।साफ सुथरी सड़कें नालो पर पुल ,फूलों केखेत ,अच्छे बाग इत्यादि ।पाठशाला,बैंक और चिकित्सालय तो थे ही।तितली की प्रेरणा से दो-एक रात्रि पाठशालाएं भी खुल गई थी ।धामपुर स्वर्ग बन गया था।
किन्तु तितली अपनी इस एकांत साधना में कभी कभी परेशांन हो जाती ।
पुत्र जब पिता के बारे मे प्रश्न करता है तब बड़ी विचलित हो जाती है ।
जब वह पूछता -"माँ पिताजी ! तो कहती हाँ बेटा तेरे पिताजी जरूर एक दिन आएंगे ।" तो लोग क्यों ऐसा कहते हैं "? तितली बड़ी उदास है बेटे के मन में ये संदेह का विष किस अभागे ने उतार दिया उसे लगता है जैसे भीतर ही भीतर वो छटपटा रहा है । मोहन के मन में अपने पिता को लेकर कई प्रश्न हैं । कभी वो रामजस से पूछता है मेरे पिता थे ?हैं के मर गए ? पूछने पर कोई उत्तर क्यों नहीं देता ? मोहन का अभिन्न मित्र था रामजस ।
मोहन फिर माँ से प्रश्न करता है "माँ एक बात पूछूँ -पूछ मेरे लाल " । तितली उसकी जिज्ञासा से भयभीत हो रही थी कहती है बेटा तेरी माँ ने कभी कोई ऐसा काम नहीं किया कि तुझे लज्जित होना पड़े ।
तितली सोचती है कि मैंने इतने वर्षों तक इसलिए संसार का अत्याचार सहा कि एक दिन वो आएंगे तो उनकी थाती सौंप कर जीवन से विश्राम लूँगी किन्तु अब नहीँ और
निश्चय करती है के तितली इस उजड़े उपवन से उड़ जाए समा जाये माँ गंगा की गोद में । धीरे से किवाड़ खोलती है
सामने एक चिर परिचित मूर्ति दिखाई देती है ,वह मधुबन था ।
यह एक सामाजिक उपन्यास है जो दो युवा प्रेमियों के अन्तर्द्वन्द को प्रस्तुत करता है । सचमुच एक अद्भुत रचना है ।भाषा शैली सरल एवम् सजीव है और मेरे ख्याल से यह कृति हर वर्ग के पुस्तक प्रेमियों को सहज ही आकर्षित करने मे सक्षम है।
प्रसादजी ने इसमें नारी का आत्मनिर्भर व आत्मसम्मान से भरा रूप दिखाया है जिससे पता चलता है की नारी के प्रति उनके मन में श्रद्धा और सम्मान का भाव था ।
तितली एक स्वावलंबी और आत्मसम्मान से युक्त नारी है । प्रस्तुत है इसके कुछ अंश जो ये दर्शाते हैं - " मैंने अपनी पाठशाला चलाने का द्रढ़ निश्चय किया है। मैं साल भर में
ही ऐसी कितनी ही छोटी -बड़ी अनाथ लड़कियां एकत्र कर लूँगी जिनसे मेरी खेती बारी और पाठशाला बराबर चलती रहेंगी । तितली का मुँह उत्साह से दमकने लगा ।"
यह उपन्यास अत्यंत ही रोचक एवम् मार्गदर्शक है ।
समाज में फैली कुरीतियों ,विसंगतियों ,संकीर्णताओं पर करारा प्रहार किया गया है । मनोरंजक होने के साथ जीवन के बारे में बहुत कुछ सिखा भी जाता है ।
Monday, 13 July 2015
ज़िन्दगी
ज़िन्दगी क्या है
समझ नहीं आया कभी
लगती कभी अबूझ पहेली सी
और कभी प्यारी सहेली सी
कभी खुशनुमा धूप सी
और कभी बदली ग़मों की
फिर अचानक , छँट जाना बदली का
मुस्कुराना हलकी सी धूप का
क्या यही है ज़िंदगी ?
लोगों से भरी भीड़ में
जब ढूँढती हूँ उसे तो
हर कोई नज़र आता है
मुखौटे चढाए हुए
एक नहीं ,दो नहीं
न जाने कितने।
बडा मुश्किल है समझ पाना
और कभी जब परत दर परत
उखडते है ये मुखौटे
तो आवाक सा रह जाना पडता है
फिर भी जिये जा रहे हैं
दिन ब दिन .....
शायद यही है ज़िन्दगी ।
.
Wednesday, 1 July 2015
भ्रम
कभी -कभी भ्रम में जीना अच्छा लगता है
अगर ये भ्रम है कि मैँ खुश हूँ , तो यही सही
कुछ पल तो हँस के गुज़ार लेती हूँ ।
अगर ये भ्रम है कि मुझ सा दूजा कोई नहीं ,
तो यही सही
कुछ पल अपने आप पर इतरा तो लेती हूँ
अगर ये भ्रम है कि चाहते हैं सभी मुझे
तो यही सही
कुछ पल प्रेम के सागर में डुबकी लगा लेती हूँ ।
लगता है जैसे ये सारा संसार
है भ्रम का मायाजाल
भ्रम ही सही ,मगर अच्छा है
ताउम्र यूँ ही बना रहे तो ,
जीना हो जाये , कितना आसान
कभी -कभी भ्रम में जीना ....
Friday, 19 June 2015
मेरे पापा
पापा मेरे कितने अच्छे
कितने प्यारे प्यारे थे
थे बड़े मितभाषी वो
आँखों से स्नेह जताते थे
हौले से मुस्काते थे
पापा मेरे.. .....
बैठाते स्कूटर पर
चीजें दिलवाने ले जाते थे
कपडे ,जूते ,पेन -पेंसिल और किताबें लाते थे
और यदि होती कोई गलती
जोर से डांट लगाते थे
पापा मेरे...
पढ़ा लिखा लायक बनाया
अच्छी सीख सिखाते थे
फिर एक दिन ,
बैठाया जब डोली में
आंसू सबसे छुपाते थे
पापा मेरे.....
जब जाती ससुराल से में तो
मूली ,करेला कभी न लाते थे
कहाँ चले गए छोड़ मुझे अब
याद बहुत ही आते हैं
पापा मेरे..
शुभा मेहता
Tuesday, 9 June 2015
लक्ष्य
आशा की कश्ती में
उमंगों की पतवार
अरमानो का नीर लेकर
चला चल माँझी चला चल ।
तू चल पड़ लक्ष्य की ओर
पहुँचना है गर किनारे
तो बनके अर्जुन
देख सिर्फ आँख चिड़िया की
देखना , पलक भी ना झपकने पाये
चाहे बहे अश्रुधार ।
मौज़े हों चाहे कितनी भी तेज़
या हो झंझावात
ना रुक ,ना डर
चला चल माँझी चला चल ।
Monday, 8 June 2015
योग दिवस
11 दिसंबर 2014 गुरुवार को संयुक्त राष्ट्रसंघ की महा सभा में घोषणा की गई थी कि 21 जून अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के रूप में मनाया जाएगा ।योग के द्वारा हमें मिलती है सकारात्मकता से जीने की प्रेरणा ।
जब भारत के राजदूत द्वारा इसे पेश किया गया तो 177 दूसरे देशों ने इसका समर्थन किया । इस प्रस्ताव को पारित किया गया ग्लोबल हेल्थ के एजेंडा के अन्तर्गत ।
अब जब हम 21 जून की योग दिवस के रूप में मनाएंगे तो ये जानना अति आवश्यक है के वास्तव में योग है क्या ? क्योंकि इस बारे में अभी अनेक भ्रांतियां हैं ।
क्या योग सिर्फ शारीरिक व्यायाम है ?
क्या ये कोई धर्म है ?
क्या ये अच्छा इंसान बनने का रास्ता है ?
नहीं , योग इनमे से कुछ भी नहीं है ।
असल में योग एक विज्ञानं है । योग का शाब्दिक अर्थ है जोड़ना। इसके अभ्यास से हम न केवल शारीरिक बल्कि मानसिक स्वस्थ्यता भी प्राप्त कर सकते हैं। पतंजलि योग सूत्र के अनुसार "योगस्य चित्तवृत्ति निरोधः " । योग केद्वारा चित्त को स्थिर बनाया जा सकता है ।श्री कृष्ण ने गीता में कहा है"योगः कर्मसु कौशलम् "यानि जब किसी कार्य को निर्लेप भाव से किया जाये तब वो योग कहलाता है ।
योग के आठ अंग हैं -यम,नियम, आसन ,प्राणायाम ,प्रत्याहार ,धारणा ,ध्यान और समाधि ।
आज शारीरिक ,मानसिक और व्यवहारिक असमानता के इस युग में योग का महत्व लोगों को समझ आने लगा है । परंतु योग शब्द के साथ अनेक नाम और अर्थ जुड़े हुए हैं जैसे - हठ योग ,भक्ति योग,ज्ञान योग ,कर्म योग ,राजयोग इत्यादि ।
जब भी जीवन में कोई कमी नज़र आये चाहे वो शारीरिक हो अथवा मानसिक तो योग के द्वारा उसे काफी हद तक ठीक किया जा सकता है । सामान्यतः मानव जीवन का लक्ष्य होता है -शांति , सुख़ और निस्वार्थ प्रेम प्राप्त करना ।लेकिन ऐसा हो नहीं पाता और फिर उदभव होता है मानसिक अशांति का जिसका असर शारीरिक स्वास्थ्य पर भी पड़ता है ऐसी परिस्थिति में अगर योग को अपनाया जाये तो शरीर व मन दोनोँ से स्वस्थ बना जा सकता है ।
योगासनों की शुरुआत प्रार्थना ,श्लोक आदि के द्वारा की जाती है । ये धीरे -धीरे पूरक ,कुंभक और रेचक के साथ तालबद्ध गति में शांत और अन्तर्मुखी भाव से किये जाते हैं
जीवन के छोटे -बड़े किसी भी काम को सहजता से करने के लिए शरीर और मन दोनों का स्वस्थ्य होना जरूरी है और इसके लिए योग की आवश्यकता है । योग शरीर के सभी अंगों को एक समान व्यायाम देता है । इसके तालबद्ध अभ्यास से शरीर के प्रत्येक अवयव को कुदरती श्रम मिलता है जिससे इन ग्रन्थियों के आरोग्यवर्धक रस अधिक मात्रा में खून के साथ मिलते हैं और तंदरुस्ती प्रदान करते हैं ।
वैज्ञानिक तरीके से आसन करने से शारीर व मन पर श्रम नहीं पड़ता । ये हमेशा शांत चित्त ,एकाग्रता व धीरज के साथ यथाशक्ति ही करने चाहिए ।सही तरीके से किये गए आसनों से हर स्नायु को नई शक्ति और स्फूर्ति मिलती है ।
जोड़ों के आसपास के बंधन आसनों द्वारा सुदृढ़ बनते हैं ।
हड्डियों में रक्त संचार बढ़ने से उनकी मजबूती एवम् स्थितिस्थापकता बढ़ती है ।
ह्रदय और धमनियों में रक्त प्रवाह बढ़ने से इनके कार्य करने की क्षमता बढ़ती है ।
प्राणायाम से श्वसन प्रक्रिया सुधरती है और स्वच्छ रक्त का निर्माण होता है । साथ ही मन की एकाग्रता बढ़ती है ।
शरीर की स्वस्थ्यता का सीधा सम्बन्ध मन से है । योग के अभ्यास से जब मन प्रसन्न रहेगा तो शरीर अपने आप स्वस्थ्य रहेगा । तो आइये स्वस्थ जीवन की शुरुआत करें ।
योग को अपने जीवन में स्थान दें ।