ओ कान्हा......
इक बार तो आओ
संग मेरे भी
फाग रचाओ
अरे , सुनते क्यों नहीं ?
बैठ कभी कदंब डाल पर
छेडो इक तो मधुर तान
सुना है , पहले दौडे़ आए थे
सुन पुकार द्रौपदी की
अब क्या हुआ है ?,
क्यों सुनाई नही देती
हजारों द्रौपदियों की
करुण पुकार
न जानें कितनें
दुर्योधन और दुःशासन
करते चीरहरण
प्रश्न तो यही
मेरा है तुमसे
क्या तुम भी
इस कोलाहल में
सुन नही पाते
करुण पुकार ....
शुभा मेहता
24 Aug ,2016
Wednesday, 24 August 2016
कान्हा.....
Saturday, 13 August 2016
एकाकी
सुना था
कान होते हैं
दीवारों के भी
पर अब जाना
कि कान ही नहीं
दीवारें तो
होती हैं सशरीर
जब से सीखा है
मैनें जीना
बंद दरवाजों
के भीतर
तब महसूस किया
कि ये तो
बतियाती हैं
घंटों मुझसे
कभी हँसाती
कभी रूलाती
और कभी तो
अपनी बाहें
फैलाकर समेट
लेती हैं
और ले जाती हैं
मुझे इस अकेलेपन से
कहीं दू.....र
जानती हूँ कि
अब ये ही है
मेरी संगी -साथी ।
शुभा मेहता
13th Aug ,2016
Saturday, 6 August 2016
दोस्ती
बचपन में इक दूजे की
थाम उँगली चलना
खेलना -कूदना
लडना -झगडना
एक ही खिलौने के लिए
कभी शाला में
गलती होने पर
एक -दूसरे को
डाँट से बचाने की कोशिश
कभी एक -दूसरे की
कॉपियों से नकल करना
करना अदल-बदल
टिफिन अपने -अपने
कभी घर बुलाना
या उसके घर जाना
घंटों बैठकर
यूँ ही बतियाना
ये नाता दोस्ती का
है कितना प्यारा
कि दिल के
किसी कोने में
दबी हुई अनकही बातें
खुल जाती हैं
सहजता से
उसके आगे
परत दर परत
शायद यही
होती है दोस्ती
समय के साथ
बढती दोस्ती ।
शुभा मेहता
6th Aug ,2016