बचपन का भी क्या खेला था
घर में ही लगता जैसे मेला था
भुआ-भतीजे ,चाचा -चाची
मामा -मामी ,,नाना -नानी
इत्ते सारे भाई -बहन
खेला करते संग -संग
लडते -झगडते
फिर मिल जाते
नही किसी से शिकायत करते ।
नानी,दादी ,अम्मा ,मौसी
सब चौके में जुट जाती
रोज -रोज कुछ नया बनाती
और प्यार से सबको खिलाती
न कोई शिकवा ,न शिकन
रात ढले सबके बिस्तर छत पर ही लग जाते थे
वाह !! वो दिन भी क्या दिन थे ...
अब कहाँ वो दिन ,वो आपसी प्रेम
सब अपने में व्यस्त ..
मिले भी अगर तो
सबको अपना कमरा चाहिए
खाने का वो स्वाद कहाँ
बाहर से ही मँगवाया जाता है
कौन बनाए इत्ता खाना
प्रश्न जटिल हो जाता है
नया जमाना आया है भैया
नया जमाना आया है ।
शुभा मेहता
25th Oct 2018
Wednesday, 24 October 2018
बदलाव
Monday, 8 October 2018
उलझन
उलझन सुलझी ..?
नहीं .....?
कोशिश करो ..
कर तो रहे है ,
पर ये धागे
इतने उलझ गए हैं
कि सुलझ ही नहीं रहे
अरे भैया ,धीरज रखो
आराम से ..
एक -एक गाँठ ..
धीरे -धीरे खोलो
याद करो ,तुम्ही नेंं
लगाई थी न ये गाँठें
नफरत की ,
ईर्ष्या की , द्वेष की
अब तुम्हें ही सुलझाना है इन्हें
धैर्य से ,प्रेम से
प्रीत से ,प्यार से ... ।
शुभा मेहता
9th Oct,2018
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