Saturday, 23 April 2016

किताबें

वो कहते हैं कि
  नहीं बेहतर
दोस्त कोई
   मुझ जैसा
जिसने भी की
  दोस्ती मुझसे
   वो हमेशा
    सुख पाया
    अरे नहीं पहचाना?
     मैं हूँ  किताब
     पर आजकल
     हो गई हूँ जरा
     एकाकी
      लोगों को हो गया है
      जरा कम मुझसे लगाव
       पड़ी रहती हूँ
     रैक पर , उपेक्षित सी
       क्योकि आजकल
     मेरी जगह है
     इंटरनेट, टीवी
      कुछ लोग सिर्फ
     दिखावे के लिए
     सजाते है मुझे
     कुछ लोग
     बेच डालते है
     रद्दी में
   मुझ में संचित
    ज्ञान के बदले
    कुछ पैसे पाकर
     खुश हो लेते
     थोडा इत्मिनान है
   कुछ लोग तो हैं
   अभी भी
   जिन्हें है मेरी क़द्र
    जो चाहते है
    अभी भी मेरा साथ
    चलो इसी बात से
    मैं खुश हूँ
    मैं हूँ किताब .........
   

माँ धरा

   हे माँ धरा
   कहाँ से लाती हो
   इतना धैर्य
   कैसे सह लेती हो
    इतना जुल्म
    इतना बोझ
    इतना कूड़ा -कचरा
    करते हैं हम मानव
    अपनी माँ को
    कितना गन्दा
  फिर भी बदले में
    देती हो तुम
    मीठे फल ,अनाज
     हरे भरे वृक्ष
     उनकी छाँव
    समेटे रहती हो
    सदा सबको
    अपने ममता के
   आँचल में
   फिर क्यों हम
    तेरे सब बच्चे
     करते इतना
    जुल्म तुझ पर
    काटते  पेड़ों को
    पर्वतों को
    पर अब हमे
    सम्भलना होगा
   करनी होगी
   तेरी हिफाज़त
    प्रेम से
    करें सब आदर जो तेरा
    रखें सब तुझे
     स्वच्छ ,सुंदर
      कमसे कम
    एक एक पेड़
     लगाये सभी
    करे जतन उनका
    तभी बन पायेगी
    माँ धरा स्वर्ग सी ।
   

रेशमी रजाई

    छोटी थी तब
     माँ ने इक दिन
    एक कहानी सुनाई थी
     थी जिसमे एक राजकुमारी
      ओढ़े जो रेशमी रजाई
      बस तभी से उसने भी
     चाही एक रेशमी रजाई
     ओढ़ जिसे वो भी
      बन जाये राजकुमारी सी
      रोज़ स्वप्न में बन जाती
      वो राजकुमारी
     होती थी सपने में
      उसके पास भी
      रेशमी रजाई
      पर जब उठती
      पाती पैबंद अपनी
      पुरानी रजाई पर
      मन मसोस कर रह जाती
      काश , सच्ची -मुच्ची
      होती उसकी भी
      एक रेशमी रजाई