कितना खुश था .......
इच्छा बस इतनी सी थी
कुछ कर जाऊं मानव के लिए
लालसा थी बस देने की ....
छाँव ,फल ,फूल यहाँ तक की टहनियाँ भी ।
फैलाता रहा शाखाएं ,छाँव देने को
पक्षियों को घर देने को
लगती थी भली उनकी चहचहाहट
फल दिए मीठे-मीठे
हुआ बहुत चोटिल भी
पत्थरों की मार से
जो फेंके जाते फलों को तोडने के लिए
फिर भी आनंद था ,कुछ देने का
आँधी -तूफान में भी खडा रहा अडिग
पर आज ,दुखी हूँ बहुत
जिस मानव को दिया इतना कुछ
वो ही कुल्हाडी लेकर काट रहा शाखाएं मेरी
सुना मैंने ................
कह रहा था जंगल होगा साफ
घर जो बनाने है उसे .....
मूर्ख है ....जानता नहीं क्या होगा
इसका अंतिम परिणाम ..।