हाँ ..... ठूँठ हूँ मैं
आते-जाते सभी लोग
लगता है जैसे चिढ़ाते हुए निकल जाते मुझे
भेजते लानत मुझ पर
कहते - कैसा ठूँठ सा खड़ा है यहाँ
इसके रहते इस जगह का सौंदर्य
जैसे ख़त्म सा हो गया है
और मैं उनकी बातों पर चिड़चिड़ा उठता
मन ही मन ,पर पूछ नहीं पाता
कि मुझे ठूँठ बनाया किसने
आँसू भी सूख चुके थे अब तक
ठूँठ जो हूँ.....
याद है मुझे अभी भी
जब मैं बीज था
कुछ बच्चे मुट्ठी में लेकर
लाये थे मुझे उगाने
रोज करते थे मेरा जतन
धीरे -धीरे अंकुर फूटे
बच्चे कितने खुश थे
नाच रहे थे ताली बजा -बजा कर
फिर धीरे -धीरे बन गया मैं एक विशाल वृक्ष
छाया में मेरी खेला करते बच्चे दिनभर
कितने ही पक्षियों का बसेरा था
मेरी शाखाओं में
कितना खुश था मैं
फिर अचनक एक दिन ..
ठाक... एक जोर का प्रहार
अपनी पीड़ा छुपा के देखने लगा इधय -उधर
मैंने सुना लोग कह रहे थे
अरे ये पेड़ तो है अब बेकार
चलो काट डालो इसे
मैं अवाक् सा रह गया
मैँने तो खुशियाँ ही बांटी
अपना सब कुछ तो दे दिया
फिर सोचा अरे ये तो इंसान है
अपनों को ही नहीं छोड़ता
फिर मैं तो पेड़ हूँ
मेरी क्या बिसात ।
Monday, 30 November 2015
ठूँठ
Sunday, 8 November 2015
पिंजरे की मैना
पिंजरे की मैना ये ,
किसे सुनाये दास्ताँ दिल की
कितनी खुश थी जंगल में वो
दिन भर चहकती रहती थी
इस डाल से उस डाल पर
इस टहनी से उस टहनी
जहाँ चाहे उड़ जाती थी
कच्चे -पक्के कैसे भी फल
तोड़ तोड़ खा लेती थी
कितना अच्छा जीवन था वो
आज़ादी से भरा हुआ
चलती थी मनमर्जियाँ
थी साथ कितनी सखियाँ -सहेलियाँ
अब इस सोने के पिंजरें में
घुटता है दम
नहीं चाहिए ये स्वादिष्ट व्यंजन
बस कोई लौटा दे मुझको
फिर से मेरी आज़ादी ।
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