खुले पैर बागीचे में दौडना ,
तितलियों के पीछे,
उन्हें पकड़ना ,पर तोड़ देना
कभी सोचा न था ,क्या गुजरेगी उन पर ।
आज भी याद है माँ की वो बात ,
" क्यों पकड़ती हो इन निरीह तितलियों को ,
काश ,होती ज़ुबाँ इनके भी ,
बयाँ कर सकती वो दास्ताँ अपनी " ।
हुआ अब ये अहसास ,
जब देखती हूँ, सुनती हूँ ,
न जाने कितनी मासूम तितलियों को,
पकड़े जाते हुए ,कुचले जाते हुए ,
दिल भर जाता है ,रोने को आता है ,
मन करता है चीखने को ,
कोशिश करती हूँ ,गला रुंध जाता है ।
पर अब हिम्मत जुटानी होगी ,
आवाज उठानी होगी ,
चलना होगा मिल कर साथ ,
ताकि,कोई तितली न खोए ,फिर रंगो को ।
कितने रंग भरती हें ,जीवन में ये ,
उड़ती हुई ही अच्छी लगती है ये ।
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