छत पर ठंडे बिछौने पर लेट
खुला आसमान निहारना
कितना सुखद !
चलते हुए बादल ..
कभी लगते गाय से
कभी खरगोश से
अलग -अलग आकृतियां
बनती -बिगडती
घंटों ताका करती
और वो चाँद ..
कितना सुंदर
माँ कहती देखो ..
चाँद में बैठकर
बुढिया चरखा कात रही
उस बुढिया को ढूँढती
अलग-अलग कोंण से
ढूँढते -ढूँढते कब आँख लग जाती
पता ही नहीं चलता ..
छत पर ठंडे बिछौने पर .......।
शुभा मेहता
29th August ,2019
वाह क्या दिन याद दिला दिये अब तो सीमेंट रेत और ईंटों की अट्टालिकाओं मेंं फ्लैट नुमा दड़बों में खुद से खुद ही बात करना और खिडक़ी की ओट से चाँद निहारना one of your best poem fantastically written with simplest of words long live "Shubha" love you stay blessed 👏👏👏👌👌👌😊😊😊😘😘😘
ReplyDeleteमाँ कहती देखो ..
ReplyDeleteचाँद में बैठकर
बुढिया चरखा कात रही
उस बुढिया को ढूँढती
अलग-अलग कोंण से
ढूँढते -ढूँढते कब आँख लग जाती
पता ही नहीं चलता ..
छत पर ठंडे बिछौने पर .......। खूबसूरत रचना सखी
बहुत-बहुत धन्यवाद सखी ।
Deleteमाँ कहती देखो ..
ReplyDeleteचाँद में बैठकर
बुढिया चरखा कात रही
उस बुढिया को ढूँढती
अलग-अलग कोंण से
ढूँढते -ढूँढते कब आँख लग जाती
पता ही नहीं चलता ..
छत पर ठंडे बिछौने
अहा ! आपने बहुत ही सुखद और भूले बिसरे दिनों की याद दिलादी सखी | सच में माँ की वो कहानियां और छत पर वो आकाश का निर्बंध अवलोकन कितना प्यारा था | सुंदर स्नेहिल रचना के लिए हार्दिक शुभकामनायें शुभा बहन |
बहुत-बहुत धन्यवाद प्रिय रेनू बहन ।
Deleteवाह शुभा जी गुलज़ार साहब की ग़ज़ल याद दिला दी साथ ही बीता बचपन, बहुत सुंदर सृजन।
ReplyDeleteधन्यवाद सखी ।
Delete
ReplyDeleteजी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (31-08-2019) को " लिख दो ! कुछ शब्द " (चर्चा अंक- 3444) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
बहुत-बहुत धन्यवाद सखी ।
Deleteदबलते मुखड़े बादल के नित नया एहसास करा जाते हैं ...
ReplyDeleteयादों को छेड़ जाते हैं ...
बहुत-बहुत धन्यवाद ।
Deleteआहा,कितनी अनुपम,कितनी सुंदर पंक्तियाँ मन को सीधे बचपन की ओर ले गई
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत रचना आदरणीया
सादर नमन