छोड़ चले थे
अपने पदचिन्ह...
तय करते ल..म्बा सफर
पहुँच गए कितनी दूर
अपनी धरती ,अपना देश ,
अपना गाँव ,अपनी मिट्टी
अपनी रेत .....
सब कुछ छोड
अधिक पाने की लालसा में
निकल गए थे.दूर देस
पा लिया धन ,वैभव
भौतिक सुख -सुविधाएं
छूट गई ,अपनी मिट्टी ,अपनी रेत ।
आज,जब हालात
हो रहे हैं बद से बदतर ,
लौट जाना चाहते हैं
अपनेंं गाँव ,अपने घर ,अपने देश
अपनी मिट्टी ....,
सर चढाने को ..।
शुभा मेहता
22nd ,May ,2029
बहुत ही मर्मस्पर्शी कविता |आप यशस्वी हों शुभा जी |
ReplyDeleteबहुत; बहुत धन्यवाद तुषार जी ।
Deleteबहुत सुंदर, सारगर्भित रचना
ReplyDeleteधन्यवाद गगन जी ।
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार(२३-०५-२०२०) को 'बादल से विनती' (चर्चा अंक-३७१०) पर भी होगी
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का
महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
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अनीता सैनी
धन्यवाद सखी अनीता .
Deleteस्वभाविक है उनमें अपने घर -गांव लौटने की इच्छा होना।
ReplyDeleteबेहतरीन पोस्ट।
सादर
धन्यवाद यशवंत जी ।
Deleteमजदूरों की मर्मान्तक पीड़ा की सघन अभिव्यक्ति!
ReplyDeleteधन्यवाद विश्वमोहन जी ।
Deleteबहुत सुंदर कविता।
ReplyDeleteधन्यवाद सर ।
Deleteमीलों का सफ़र बेबस मजबूर है
ReplyDeleteरेत पर पैरों के निशां बेकसूर हैं
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यथार्थवादी लेखन दी।
सादर।
धन्यवाद श्वेता ।
Deleteसार्थक रचना।
ReplyDeleteधन्यवाद सर ।
Deleteहो रहे हैं बद से बदतर ,
ReplyDeleteलौट जाना चाहते हैं
अपनेंं गाँव ,अपने घर ,अपने देश
अपनी मिट्टी ....,
सर चढाने को ..।
बहुत सुंदर रचना है।
धन्यवाद अखिलेश जी ।
Deleteअपना गाँव ,अपनी मिट्टी
ReplyDeleteअपनी रेत .....
सब कुछ छोड
अधिक पाने की लालसा में
निकल गए थे.दूर देस
पा लिया धन ,वैभव
भौतिक सुख -सुविधाएं
छूट गई ,अपनी मिट्टी ,अपनी रेत
आज जब दुख के बादल घुमड़े तो अपनी मिट्टी अपना गाँव याद आ गया
बहुत ही सुन्दर रचना
वाह!•
धन्यवाद सखी सुधा जी ।
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद यशोदा जी ।
ReplyDeleteलौट जाना चाहते हैं
ReplyDeleteअपनेंं गाँव ,अपने घर ,अपने देश
अपनी मिट्टी ....,
सर चढाने को ..। हृदयस्पर्शी रचना
बहुत-बहुत आभार सखी ।
Deleteबहुत ही मार्मिक ...समसामयिक यथार्थवादी रचना शुभा जी👌👌👌
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद सुधा जी ।
Deleteये एक कशमकश है जो जाने के बाद शुरू हो जाती है फिर ख़त्म नहीं होती ताउम्र ... क्योंकि समय दुसरे की भी तो आदत डाल देता है तब तक ... गहरे मन के भाव लिखे हैं ...
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद दिगंबर जी ।
Deleteगहरे भाव समेटे ,मर्मस्पर्शी सृजन शुभा जी ,सादर नमन
ReplyDeleteधन्यवाद सखी ।
Deleteसुधा दी, इसलिए ही तो कहा जाता हैं कि संकट के समय अपने ही याद आते हैं और वो ही काम आते भी हैं। सुंदर रचना।
ReplyDeleteधन्यवाद ज्योति ।
Deleteसुन्दर सृजन
ReplyDeleteधन्यवाद सर ।
Deleteअधिक पाने की लालसा में
निकल गए थे.दूर देस
पा लिया धन ,वैभव
भौतिक सुख -सुविधाएं
छूट गई ,अपनी मिट्टी ,अपनी रेत ।
आज,जब हालात
हो रहे हैं बद से बदतर ,
लौट जाना चाहते हैं
अपनेंं गाँव ,अपने घर ,अपने देश
अपनी मिट्टी ....,
सर चढाने को ..।
बहुत ही बढ़िया रचना सत्य को उजागर करती हुई
बहुत-बहुत धन्यवाद ज्योति जी ।
Deleteइस बेहतरीन लिखावट के लिए हृदय से आभार Appsguruji(जाने हिंदी में ढेरो mobile apps और internet से जुडी जानकारी )
ReplyDeleteबहुत-बहुत आभार ।
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