Thursday, 21 May 2020

पदचिन्ह

गीली रेत पर 
छोड़ चले थे
अपने पदचिन्ह...
  तय करते ल..म्बा  सफर 
   पहुँच गए कितनी दूर 
     अपनी धरती ,अपना देश ,
        अपना गाँव ,अपनी मिट्टी
         अपनी रेत .....
          सब कुछ छोड 
              अधिक पाने की लालसा में 
               निकल गए थे.दूर देस
                 पा लिया धन ,वैभव 
                   भौतिक सुख -सुविधाएं 
                   छूट गई ,अपनी मिट्टी ,अपनी रेत ।
                आज,जब हालात 
हो रहे हैं बद से बदतर ,
लौट जाना चाहते हैं 
अपनेंं गाँव ,अपने घर ,अपने देश 
  अपनी मिट्टी ...., 
  सर चढाने को ..।
 
शुभा मेहता 
22nd ,May ,2029
   


                     
 

           
                    




                
 
              
    

    

                

37 comments:

  1. बहुत ही मर्मस्पर्शी कविता |आप यशस्वी हों शुभा जी |

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    1. बहुत; बहुत धन्यवाद तुषार जी ।

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  2. बहुत सुंदर, सारगर्भित रचना

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    1. धन्यवाद गगन जी ।

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  3. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार(२३-०५-२०२०) को 'बादल से विनती' (चर्चा अंक-३७१०) पर भी होगी
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का
    महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    **
    अनीता सैनी

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    1. धन्यवाद सखी अनीता .

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  4. स्वभाविक है उनमें अपने घर -गांव लौटने की इच्छा होना।
    बेहतरीन पोस्ट।

    सादर

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    1. धन्यवाद यशवंत जी ।

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  5. मजदूरों की मर्मान्तक पीड़ा की सघन अभिव्यक्ति!

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    1. धन्यवाद विश्वमोहन जी ।

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  6. बहुत सुंदर कविता।

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  7. मीलों का सफ़र बेबस मजबूर है
    रेत पर पैरों के निशां बेकसूर हैं
    ----
    यथार्थवादी लेखन दी।
    सादर।

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    1. धन्यवाद श्वेता ।

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  8. हो रहे हैं बद से बदतर ,
    लौट जाना चाहते हैं
    अपनेंं गाँव ,अपने घर ,अपने देश
    अपनी मिट्टी ....,
    सर चढाने को ..।
    बहुत सुंदर रचना है।

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    1. धन्यवाद अखिलेश जी ।

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  9. अपना गाँव ,अपनी मिट्टी
    अपनी रेत .....
    सब कुछ छोड
    अधिक पाने की लालसा में
    निकल गए थे.दूर देस
    पा लिया धन ,वैभव
    भौतिक सुख -सुविधाएं
    छूट गई ,अपनी मिट्टी ,अपनी रेत
    आज जब दुख के बादल घुमड़े तो अपनी मिट्टी अपना गाँव याद आ गया
    बहुत ही सुन्दर रचना
    वाह!•

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  10. धन्यवाद सखी सुधा जी ।

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  11. बहुत-बहुत धन्यवाद यशोदा जी ।

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  12. लौट जाना चाहते हैं
    अपनेंं गाँव ,अपने घर ,अपने देश
    अपनी मिट्टी ....,
    सर चढाने को ..। हृदयस्पर्शी रचना

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    1. बहुत-बहुत आभार सखी ।

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  13. बहुत ही मार्मिक ...समसामयिक यथार्थवादी रचना शुभा जी👌👌👌

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद सुधा जी ।

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  14. ये एक कशमकश है जो जाने के बाद शुरू हो जाती है फिर ख़त्म नहीं होती ताउम्र ... क्योंकि समय दुसरे की भी तो आदत डाल देता है तब तक ... गहरे मन के भाव लिखे हैं ...

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद दिगंबर जी ।

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  15. गहरे भाव समेटे ,मर्मस्पर्शी सृजन शुभा जी ,सादर नमन

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  16. सुधा दी, इसलिए ही तो कहा जाता हैं कि संकट के समय अपने ही याद आते हैं और वो ही काम आते भी हैं। सुंदर रचना।

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    1. धन्यवाद ज्योति ।

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  17. अधिक पाने की लालसा में
    निकल गए थे.दूर देस
    पा लिया धन ,वैभव
    भौतिक सुख -सुविधाएं
    छूट गई ,अपनी मिट्टी ,अपनी रेत ।
    आज,जब हालात
    हो रहे हैं बद से बदतर ,
    लौट जाना चाहते हैं
    अपनेंं गाँव ,अपने घर ,अपने देश
    अपनी मिट्टी ....,
    सर चढाने को ..।
    बहुत ही बढ़िया रचना सत्य को उजागर करती हुई

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद ज्योति जी ।

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